________________
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशके: गाथा ९-१०
स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् पुरुष मांस आदि का लोभ देकर भयरहित तथा निर्भय होने के कारण अकेले विचरनेवाले सिंह को गले के पाश आदि पदार्थों से बांध लेते हैं, तथा बांधकर उसे तरह-तरह की पीड़ा देते हैं। इसी तरह स्त्रियां अनेक प्रकार के उपायों से मधुर भाषण आदि के द्वारा मन, वचन और काय से गुप्त रहनेवाले साधु को भी अपने वश में कर लेती हैं । यहां संवृत पद स्त्रियों का सामर्थ्य बताने के लिए दिया गया है अर्थात् स्त्रियां मन, वचन और काय से गुप्त रहनेवाले साधु को भी वश कर लेती हैं फिर जो मन, वचन और काय से गुप्त नहीं हैं, उनकी तो बात ही क्या है? ॥८॥
अह तत्थ पुणो णमयंती, रहकारो व णेमि आणुपुव्वीए । बद्धे मिए व पासेणं, फंदंते वि ण मुच्चए ताहे
॥९॥ छाया - भथ तत्र पुनर्नमयन्ति, रथकार इव नेमिमानुपूर्व्या ।
बद्धो मृग इव पाशेन स्पन्दमानोऽपि न मुच्यते तस्मात् || अन्वयार्थ - (रहकारो) रथकार (आणुपुब्बीए) क्रमशः (णेमि व) जैसे नेमि को नमाता है, इसी तरह स्त्रियां साधु को (अह) अपने वश में करने के पश्चात् (तत्थ) अपने इष्ट अर्थ में क्रमशः (णमयन्ती) झूका लेती है । (मिए व) मृग की तरह (पासेणं) पाश से (बद्धे) बंधा हुआ साधु (फंदंते वि) पाश से छुटने के लिए प्रयत्न करता हुआ भी (ताहे) उससे (ण मुच्चए) नहीं छुटता है।
भावार्थ - जैसे रथकार रथ की नेमि (पुट्ठी) को क्रमशः नमा देता है, इसी तरह स्त्रियां साधु को वश करके उसे क्रमशः अपने इष्ट अर्थ में झूका लेती हैं । जैसे पाश में बंधा हुआ मृग छट-पटाता हुआ भी पाश से मुक्त नहीं होता है। इसी तरह स्त्री के पाश में बंधा हुआ साधु प्रयत्न करने पर भी उस पाश से नहीं छुटता है।
टीका - 'अथ' इति स्ववशीकरणानन्तरं पुनस्तत्र - स्वाभिप्रेते वस्तुनि 'नमयन्ति' प्रद्धं कुर्वन्ति, यथा - 'रथकारो' वर्धकिः 'नेमिकाष्ठं' चक्रबाह्यभ्रमिरूपमानुपूर्व्या नमयति, एवं ता अपि साधुं स्वकार्यानुकूल्ये प्रवर्तयन्ति, स च साधुर्मंगवत्, पाशेन बद्धो मोक्षार्थं स्पन्दमानोऽपि ततः पाशान्न मुच्यत इति ॥९॥ किञ्च -
टीकार्थ - अपने वश में करने के पश्चात् स्त्रियां साधु को अपने इष्ट अर्थ में नमा देती हैं, जैसे रथकार चक्र के बाहर के गोलाकार नेमि (पुढे) को अनुक्रम से नमाता है, इसी तरह स्त्रियां भी साधु को क्रमशः अपने अनुकूल कार्य में प्रेरित करती हैं । स्त्री के पाश में बंधा हुआ वह साधु पाश में बंधे हुए मृग की तरह उससे छुटने का प्रयत्न करता हुआ भी उससे मुक्त नहीं होता है ।।९।।
अह सेऽणुतप्पई पच्छा, भोच्चा पायसं व विसमिस्सं । एवं विवेगमादाय, संवासो नवि कप्पए दविए
॥१०॥ छाया - अथ सोऽनुतप्यते पश्चात् भुक्त्वा पायसमिव विषमिश्रम् ।
एवं विवेकमादाय संवासो नाऽपि कल्पते द्रव्ये ॥ अन्वयार्थ - (अह) स्त्री के होने के पश्चात् (से) वह साधु (पच्छा अणुतप्पई) पश्चात्ताप करता है । (विसमिस्स) जैसे विष से मिला हुआ पायस (खीर) (भोच्चा) खाकर मनुष्य पश्चात्ताप करता है । (एवं) इस प्रकार (विवेगमादाय) विवेक को ग्रहण करके (दविए) मुक्तिगमनयोग्य साधु को (संवासो) स्त्रियों के साथ एक स्थान में रहना (नवि कप्पए) ठीक नहीं है ।
भावार्थ - जैसे विष से मिले हुए पायस (खीर) को खाकर मनुष्य पश्चात्ताप करता है, इसी तरह स्त्री के वश में होने पर मनुष्य पश्चात्ताप करता है, अतः इस बात को जानकर मुक्ति गमनयोग्यसाधु स्त्री के साथ एक स्थान में न रहे ।
टीका - 'अह से' इत्यादि, अथासौ साधुः स्त्रीपाशावबद्धो मृगवत् कूटके पतितः सन् कुटुम्बकृते अहर्निशं क्लिश्यमानः पश्चादनुतप्यते, तथाहि - गृहान्तर्गतानामेतदवश्यं सम्भाव्यते, तद्यथा -
२५७