Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 295
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशः गाथा ७ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् और अनेक प्रकार के वार्तालाप से विश्वास देकर (भिक्खु) साधु को (आयसा) अपने साथ भोग करने के लिए (निमंतंति) निमन्त्रित करती हैं। (से) अतः साधु (एयाणि सद्दाणि) स्त्री सम्बन्धी इन शब्दों को (विरूवरूवाणि जाणे) नाना प्रकार का पाशबन्ध जाने । भावार्थ - स्त्रियां साधु को संकेत देती हैं कि में अमुक समय में आपके पास आऊंगी । तथा नाना प्रकार के वार्तालापों से विश्वास उत्पन्न करती । इसके पश्चात् वे अपने साथ भोग करने के लिए साधु को आमन्त्रित करती हैं, अतः विवेकी साधु स्त्री सम्बन्धी इन शब्दों को नाना प्रकार का पाशबन्धन जाने । टीका ‘आमन्तिय' इत्यादि, स्त्रियो हि स्वभावेनैवाकर्तव्यप्रवणाः साधुमामन्त्र्य यथाऽहममुकस्यां वेलायां भवदन्तिकमागमिष्यामीत्येवं सङ्केतं ग्राहयित्वा तथा 'उस्सविय'त्ति संस्थाप्योच्चावचैर्विश्रम्भजनकैरालापैर्विश्रम्भे पातयित्वा पुनरकार्यकरणायात्मना निमन्त्रयन्ति, आत्मनोपभोगेन साधुमभ्युपगमं कारयन्ति । यदिवा - साधोर्भयापहरणार्थं ता एव योषितः प्रोचुः, तद्यथा भोजनपादधावनशयनादिकया भर्तारमामन्त्र्यापृच्छयाहमिहाऽऽयाता, तथा संस्थाप्य क्रिययोपचर्य ततस्तवान्तिकमागतेत्यतो भवता सर्वां मद्भर्व्रजनितामाशङ्कां परित्यज्य निर्भयेन भाव्यमित्येवमादिकैर्वचोभिर्विश्रम्भमुत्पाद्य भिक्षुमात्मना निमन्त्रयन्ते, युष्मदीयमिदं शरीरकं यादृक्षस्य क्षोदीयसो गरीयसो वा कार्यस्य क्षमं तत्रैव नियोज्यतामित्येवमुपप्रलोभयन्ति, स च भिक्षुरवगतपरमार्थः एतानेव 'विरूपरूपान्' नानाप्रकारान् 'शब्दादीन् ' विषयान् तत्स्वरूपनिरूपणतो ज्ञपरिज्ञया जानीयात्, यथैते स्त्रीसंसर्गापादिताः शब्दादयो विषया दुर्गतिगमनैकहेतवः सन्मार्गार्गलारूपा इत्येवमवबुध्येत, तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च तद्विपाकावगमेन परिहरेदिति ||६|| अन्यच्च - - - टीकार्थ स्त्रियां स्वभाव से ही अकर्त्तव्य में तत्पर रहती हैं, वे साधु को आमन्त्रण करती हैं, जैसे कि"मैं अमुक समय में आपके पास आउंगी” इस प्रकार संकेत देकर ऊंच-नीच वचनों के द्वारा विश्वास उत्पन्न करके फिर अपने साथ कुकर्म करने के लिए साधु को आमन्त्रित करती हैं अर्थात् वे अपने साथ उपभोग करने के लिए साधु को स्वीकार कराती हैं । अथवा साधु का भय दूर करने के लिए स्त्रियां कहती हैं कि मैं अपने पति से पूछकर आपके पास आयी हूं । तथा अपने पति को भोजन कराकर, उनके पैर धोकर एवं उन्हें सुलाकर आपके पास आयी हूं, इसलिए आप मेरे पति की शंका छोड़कर निर्भय हो कार्य कीजिए। इस प्रकार के वचनों से साधु को विश्वास उत्पन्न कराकर अपने साथ भोग करने के लिए स्त्रियां आमन्त्रित करती हैं। वे कहती हैं कि यह मेरा शरीर आपका ही है, यह छोटा मोटा जिस कार्य के लिए समर्थ हो उस कार्य में आप इसे लगावें, यह कहकर स्त्रियां साधु को प्रलोभित करती हैं परन्तु परमार्थ को जाननेवाला भिक्षु इन स्त्री सम्बन्धी नाना प्रकार के शब्दादि विषयों को ज्ञपरिज्ञा से पाशस्वरूप जाने क्योंकि ये स्त्री सम्बन्धी शब्दादि विषय दुर्गति में ले जाने के कारण हैं तथा उत्तम मार्ग की अर्गला हैं। इस प्रकार समझे । तथा इनका विपाक बुरा होता है, यह जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से इनको त्याग देवे ||६|| - मणबंधणेहिं णेगेहिं, कलुणविणीयमुवगसित्ताणं । अदु मंजुलाई भासंति, आणवयंति भिन्नकहाहिं - 11911 छाया - • मनोबन्धनैरनेकैः करुणविनीतमुपश्लिष्य । अथ मञ्जुलानि भाषन्ते, आज्ञापयन्ति भिन्नकथाभिः ॥ अन्वयार्थ - (गेगेहिं मणबंधणेहिं) अनेक प्रकार के मन को हरने वाले उपायों के द्वारा (कलुण विणीयमुवगसित्ताणं) तथा करुणोत्पादक वाक्य और विनीत भाव से साधु के पास आकर (अदु मंजुलाई भासंति) मधुर भाषण करती हैं ( भिन्नकहाहिं आणवयंति) और कामसम्बन्धी आलाप के द्वारा साधु को कुकर्म करने की आज्ञा देती हैं । भावार्थ - स्त्रियां साधु के चित्त को हरने के लिए अनेक प्रकार के उपाय करती हैं। वे करुणा जनक वाक्य बोलकर तथा विनीतभाव से साधु के समीप आती हैं। वे साधु के पास आकर मधुर भाषण करती हैं और काम सम्बन्धी आलाप के द्वारा साधु को अपने साथ भोग करने की आज्ञा देती हैं । टीका – मनो बध्यते यैस्तानि मनोबन्धनानि - मञ्जुलालापस्निग्धावलोकनाङ्गप्रत्यङ्गप्रकटनादीनि, तथा चोक्तम् – - २५५

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