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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशः गाथा ५
हैं । परमार्थदर्शी साधु इन्ही बातों को नाना प्रकार का पाशबन्धन समझे । टीका 'सयणासणे' इत्यादि, शय्यतेऽस्मिन्निति शयनं पर्यङ्कादि तथाऽऽस्यतेऽस्मिन्नित्यासनम्___ आसन्दकादीत्येवमादिना 'योग्येन' उपभोगार्हेण कालोचितेन 'स्त्रियो' योषित 'एकदा' इति विविक्तदेशकालादौ 'निमन्त्रयन्ति' अभ्युपगमं ग्राहयन्ति, इदमुक्तं भवति - शयनासनाद्युपभोगं प्रति साधुं प्रार्थयन्ति, 'एतानेव' शयना' सननिमन्त्रणरूपान् स साधुर्विदितवेद्यः परमार्थदर्शी 'जानीयाद्' अवबुध्येत स्त्रीसम्बन्धकारिणः पाशयन्ति बध्नन्तीति पाशास्तान् 'विरूपरूपान्' नानाप्रकारानिति । इदमुक्तं भवति स्त्रियो ह्यासन्नगामिन्यो भवन्ति, तथा चोक्तम् -
2 अंब वा निंबं वा अब्भासगुणेण आरुहइ वल्ली, एवं इत्थीतोवि य जं आसन्नं तमिच्छन्ति ||१||” तदेवम्भूताः स्त्रियो ज्ञात्वा न ताभिः सार्धं साधुः सङ्गं कुर्यात्, यतस्तदुपचारादिकः सङ्गो दुष्परिहार्यो भवति,
तदुक्तम्
जं इच्छसि घेत्तुं जे पुव्विं तं आमिसेण गिण्हाहि । आमिसपासनिबद्धो काहिइ कज्ञं अकज्जं वा ||१|| ॥४॥ किञ्च
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तथा
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टीकार्थ जिसके ऊपर शयन किया जाता है, उसे शयन कहते हैं । पलंग आदि शयन कहलाते जिस पर बैठते हैं, उसे आसन कहते हैं। वह कुर्सी आदि है । उपभोग करने योग्य इन वस्तुओं को ग्रहण करने के लिए स्त्रियां एकान्त स्थान तथा काल देखकर साधु से प्रार्थना करती हैं। आशय यह है कि स्त्रियां शयन और आसन आदि का उपभोग करने के लिए साधु से प्रार्थना करती हैं परन्तु जानने योग्य बातों को जाननेवाला परमार्थदर्शी साधु इन्हीं शयन, आसन आदि के आमन्त्रणों को स्त्री के साथ फँसानेवाला नाना प्रकार का पाश बन्धन जाने । कहने का आशय यह है कि स्त्रियां पास में रहनेवाले पुरुष को ग्रहण करती हैं। कहा है कि वृक्ष पर स्वभाव से ही बेल चढ़ती है, इसी तरह स्त्रियां भी जो पास में पुरुष होता है, उसी की इच्छा करती हैं ।
आम हो चाहे निम्ब हो पास के
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नो तासु चक्खु संधेज्जा, नोवि य साहसं समभिजाणे ।
णो सहियंपि विहरेज्जा, एवमप्पा सुरक्खिओ होइ
छाया
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अतः साधु स्त्रियों को इस प्रकार समझकर उनके साथ संग न करे । क्योंकि स्त्रियों की सेवाभक्ति के कारण उनके साथ संग दुस्त्यज होता । कहा है कि
स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम्
यदि तुम स्त्रियों से कोई वस्तु लेना चाहते हो तो उसे आमिष अर्थात् प्रलोभनीय वस्तु समझो क्योंकि उस प्रलोभनीय वस्तु के पाश में बंधकर जीव कार्य और अकार्य सभी करने में प्रवृत्त हो जाता है ||४||
न तासु चक्षुः सन्दध्यात् नाऽपि च साहसं समभिजानीयात् । न सहितोऽपि विहरेदेवमात्मा सुरक्षितो भवति ॥
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1. सनादिनि० प्र० ।
2. आम्रं वा निम्बं वाभ्यासगुणेनारोहति वल्ली । एवं स्त्रियोऽपि य एवासन्नस्तमिच्छन्ति ||१||
3. यान् ग्रहीतुमिच्छसि तानामिषेण पूर्वं गृहाण । यदामिषपाशनिबद्धः करिष्यति कार्यमकार्यं वा ||१||
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अन्वयार्थ - ( तासु ) उन स्त्रियों पर (चक्खु) आंख (नो संधेज्जा) न लगावे । (नोवि य साहसं समभिजाणे ) तथा उनके साथ कुकर्म करना भी स्वीकार न करे (सहियंपि णो विहरेज्जा) उनके साथ ग्राम आदि में विहार न करे । ( एवमप्पा सुरक्खिओ होइ) इस प्रकार साधु की आत्मा सुरक्षित होती है ।
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