Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 291
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा २ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् तस्यैवं कृतप्रतिज्ञस्य साधोर्यद्भवत्यविवेकिस्त्रीजनात्तद्दर्शयितुमाह - ऐसे साधु को अविवेकी स्त्रियों के द्वारा क्या होता है सो बताते हैं - सुहमेणं तं परिक्कम्म, छन्नपएण इथिओ मंदा । उव्वायपि ताउ जाणंसु, जहा लिस्संति भिक्खुणो एगे ॥२॥ छाया - सूक्ष्मेण तं परिक्रम्य छापदेन लियो मन्दाः । उपायमपि ताः जानन्ति यथा श्लिष्यन्ति भिक्षव एके ॥ अन्वयार्थ - (मंदा इथिओ) अविवेकिनी स्त्रियाँ (सुहुमेणं) छल से (तं परिकम्म) साधु के पास आकर (छत्रपएण) कपट से अथवा गूढार्थ शब्द से साधु को शीलभ्रष्ट करने का प्रयत्न करती हैं (ता उव्वायंपि जाणंति) स्त्रियां वह उपाय भी जानती हैं (जहा एगे भिक्खुणो लिस्संति) जिससे कोई साधु उनके साथ संग कर लेते हैं। भावार्थ - अविवेकिनी स्त्रियां किसी छल से साधु के निकट आकर कपट से अथवा गूढार्थ शब्द के द्वारा साधु को शील से भ्रष्ट करने का प्रयत्न करती हैं । वे वह उपाय भी जानती हैं, जिससे कोई साधु उनका संग कर लेते हैं । टीका - 'सुहमेणं' इत्यादि, 'तं' महापुरुषं साधुं 'सूक्ष्मेण' अपरकार्यव्यपदेशभूतेन 'छन्नपदेने ति छद्मना - कपटजालेन 'पराक्रम्य' तत्समीपमागत्य, यदिवा - 'पराक्रम्ये ति शीलस्खलनयोग्यतापत्त्या अभिभूय, काः? - 'स्त्रियः' कूलवालुकादीनामिव मागधगणिकाद्या नानाविधकपटशतकरणदक्षा विविधविब्बोकवत्यो भावमन्दा:- कामोद्रेकविधायितया सदसद्विवेकविकलाः समीपमागत्य शीलाद् ध्वंसयन्ति, एतदुक्तं भवति - भ्रातृपुत्रव्यपदेशेन साधुसमीपमागत्य संयमाद् अंशयन्ति, तथा चोक्तम् - पियपुत्तभाइकिडगा णतकिडगा य सयणकिडगा य । एते जोव्वणकिडगा पच्छल्लपई महिलियाणं ||१|| यदिवा - छन्नपदेनेति - गुप्ताभिधानेन, तद्यथा - काले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य, मेघान्धकारासु च शर्वरीषु । मिथ्या न भाषामि विशालनेत्रे!, ते प्रच्यया ये प्रथमाक्षरेषु ||१|| इत्यादि, ताः स्त्रियो मायाप्रधानाः प्रतारणोपायमपि जानन्ति - उत्पन्नप्रतिभतया विदन्ति, पाठान्तरं वा ज्ञातवत्यः, यथा 'श्लिष्यन्ते' विवेकिनोऽपि साधव एके तथाविधकर्मोदयात् तासु सङ्गमुपयान्ति ॥२॥ टीकार्थ - उस महापुरुष को किसी दूसरे कार्य के बहाने से कपट करके स्त्रियाँ पास आकर शील भ्रष्ट कर देती हैं। अथवा उस महापुरुष को ब्रह्मचर्य भ्रष्ट होने योग्य बनाकर शीलभ्रष्ट कर देती हैं। जैसे कूलवालुक आदि तपस्वियों को नाना प्रकार के कपट करने में निपुण तथा अनेक प्रकार के काम विलासों को उत्पन्न करनेवाली भले और बुरे के विचार से रहित मूर्ख मागध वेश्या आदि स्त्रियों ने शीलभ्रष्ट कर डाला था । इसी तरह स्त्रियाँ साधु को शीलभ्रष्ट कर डालती हैं । आशय यह है कि - भाई, पुत्र आदि के बहाने से स्त्रियाँ साधु के पास आकर संयम से भ्रष्ट कर देती हैं । कहा भी है - प्रिय पुत्र, प्रिय भाई, प्रिय नाती तथा स्वजन आदि संसारी सम्बन्ध के बहाने से गुप्त पति करना स्त्रियों की रीति है। अथवा गुप्त नामके द्वारा स्त्रियां जाल रचती हैं, जैसे 'काले प्रसुप्तस्य' इत्यादि श्लोक के द्वारा छिपाकर अपना अभिप्राय प्रगट करती हैं (इस श्लोक का भाव यह है कि) इस श्लोक के चारों चरणों के प्रथम अक्षरों की योजना करके तुम मेरा अभिप्राय समझो । प्रथम अक्षरों की योजना करने पर 'काममि ते' यह वाक्य बनता है । इसका अर्थ है कि मैं तुम्हारी कामना करती हूं। इस 1. प्रियपुत्रभ्रातृक्रीडका नसृक्रीडकाच स्वजनक्रीडकाच एते यौवनक्रीडकाः प्राप्ताः प्रच्छन्त्रपतयो महिलानां ॥१॥ २५१

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