Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 289
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशः प्रस्तावना स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् स्त्रियां जीते हुए पति को मार डालती है और कोई अपनी प्रतिष्ठा के लिए मरे हुए पति के पीछे मर जाती है, अतः स्त्रियों का चरित्र सर्प के समान टेढ़ा से भी टेढ़ा होता है ॥८॥ गङ्गा की रेती के कणों को तथा समुद्र के जल को एवं हिमालय पर्वत के परिमाण को बुद्धिमान् पुरुष जानते हैं परन्तु वे स्त्रियों के हृदय को नहीं जान सकते ॥९॥ स्त्रियां दूसरे को रुलाती हैं और आप भी रोती हैं, झूठ बोलती हैं, शपथ खाकर विश्वास उत्पन्न करती हैं, कपट से विष भक्षण करती हैं, मर जाती हैं परन्तु उनके हृदय के सच्चे भाव को कोई नहीं जानता ||१०|| स्त्रियां मन में दूसरा कार्य सोचती हैं और बाहर से दूसरा कार्य स्थापन करती हैं, वचन से वे दूसरा कार्य बताती हैं और अन्य कार्य को आरम्भ करती हैं । वे आरम्भ किये हुए कार्य से भिन्न कार्य करके बताती हैं अतः स्त्रियां माया की राशि हैं । दूसरे को ठगना ही इनका सार है ||११|| लोक में निन्दा के योग्य तथा परलोक में वैरी के समान जितने आरम्भ हैं, उन सब का कारण स्त्रियां हैं ॥ १२ ॥ अथवा स्वभाव से कुटिल युवतियों के चरित्र को कौन जान सकता है ? क्योंकि दोषों का भंडार कामदेव उनके शरीर में निवास करता है ||१३|| स्त्रियां, दुष्ट आचरण का मूल हैं, नरक का विशाल मार्ग हैं, मोक्ष जाने में महा विघ्न करनेवाली हैं, अतः स्त्रियां सदा छोड़ने योग्य हैं ||१४|| वे श्रेष्ठ पुरुष धन्य हैं, जो अपनी सुन्दरी स्त्री को छोड़ दीक्षा धारण करके यम नियम का पालन करके अचल अनुत्तर कल्याण स्थान (सिद्धि) को प्राप्त हुए हैं ||१५|| ||५९ ॥ नि० अधुना यादृक्षः शूरो भवति तादृक्षं दर्शयितुमाह वीर पुरुष कैसे होते हैं । सो बताने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं धम्मंमि जो दढा मई सो सूरो सत्तिओ य वीरो य । गहु धम्मणिरुस्साहो पुरिसो सूरो सुबलिओऽवि ॥६०॥ नि० । टीका 'धर्मे' श्रुतचारित्राख्ये दृढा निश्चला मतिर्यस्य स तथा एवम्भूतः स इन्द्रियनोइन्द्रियारिजयात्शूरः तथा 'सात्त्विको' महासत्त्वोपेतोऽसावेव 'वीरः' स्वकर्मदारणसमर्थोऽसावेवेति किमिति?, यतो नैव धर्मनिरुत्साहः ' सदनुष्ठाननिरुद्यमः सत्पुरुषाचीर्णमार्गपरिभ्रष्टः पुरुषः सुष्ठु बलवानपि शूरो भवतीति ॥ - टीकार्थ श्रुत और चारित्र धर्म में जिस पुरुष की निश्चल मति है, तथा जो इन्द्रिय और मनरूपी शत्रु को जीतनेवाला है, वही शूर है । वही पुरुष सात्त्विक अर्थात् महाशक्तियुक्त वीर है और वही अपने कर्मों का नाश करने में समर्थ है । प्रश्न ऐसे पुरुष को शूरवीर क्यों कहते हैं? उत्तर जो पुरुष धर्माचरण करने में उत्साह नहीं रखता, सत् अनुष्ठान में उद्यम रहित होता है तथा सत्पुरुषों द्वारा आचरण किये हुए मार्ग से भ्रष्ट होता है, वह चाहे कितना ही बलवान् हो शूर नहीं कहा जा सकता है । [ अतः जो धर्माचरण में उत्साह उद्यम करता और मार्गानुसार चलता है, वह शूरवीर कहा जाता है] ||६०||नि० | एतानेव दोषान् पुरुषसम्बन्धेन स्त्रीणामपि दर्शयितुमाह स्त्रियों के सम्बन्ध से पुरुष में उत्पन्न होनेवाले जितने दोष बताये गये हैं, उतने ही पुरुष के सम्बन्ध से स्त्री में भी उत्पन्न होते हैं, यह बताने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं एते चेव य दोषा पुरिससमाएवि इत्थीयापि । तम्हा उ अप्पमाओ विरागमग्गम्मि तासिं तु ॥ ६१ ॥ नि० । टीका ये प्राक् शीलप्रध्वंसादयः स्त्रीपरिचयादिभ्यः पुरुषाणां दोषा अभिहिता एत एवान्यूनाधिकाः पुरुषेण सह यः समायः सम्बन्धस्तस्मिन् स्त्रीणामपि, यस्माद्दोषा भवन्ति तस्मात् तासामपि विरागमार्गे प्रवृत्तानां पुरुषपरिचयादिपरिहारलक्षणोऽप्रमाद एव श्रेयानिति । एवं यदुक्तं 'स्त्रीपरिज्ञे 'ति तत्पुरुषोत्तमधर्मप्रतिपादनार्थम्, अन्यथा 'पुरुषपरिज्ञे' त्यपि वक्तव्येति । -- - टीकार्थ पहले शील का नाश आदि दोष जो स्त्रियों के सम्बन्ध से पुरुष में उत्पन्न होने वाले कहे गये हैं, वे सभी दोष उतने ही कम ज्यादा नहीं पुरुषों के सम्बन्ध से स्त्रियों में भी उत्पन्न होते हैं अतः दीक्षा धारण २४९

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