Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 298
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा ११ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् कोद्धयओ को समचितु काहोवणाहिं काहो दिज्जउ वित्त को उग्घाडउ परिहियउ परिणीयउ को व कुमारउ पडियतो जीव खडप्फडेहि पर बंधइ पावह भारओ ||१||" तथा तत् - मया परिजनस्यार्थ, कृतं कर्म सुदारुणम् । एकाकी तेन दोऽहं, गतास्ते फलभोगिनः ||१|| । इत्येवं बहुप्रकारं महामोहात्मके कुटुम्बकूटके पतिता अनुतप्यन्ते, अमुमेवा) दृष्टान्तेन स्पष्टयति- यथा कश्चिद्विषमिश्रं भोजनं भुक्त्वा पश्चात्तत्र कृतावेगाकुलितोऽनुतप्यते, तद्यथा - किमेतन्मया पापेन साम्प्रतक्षिणा सुखरसिकतया विपाककटुकमेवम्भूतं भोजनमास्वादितमिति, एवमसावपि पुत्रपौत्रदुहितृजामातृस्वसृभ्रातृव्यभागिनेयादीनां भोजनपरिधानपरिणयनालङ्कारजातमृतकर्मतद्व्याधिचिकित्साचिन्ताकुलोऽपगतस्वशरीरकर्तव्यः प्रनष्टैहिकामुष्मिकानुष्ठानोऽहर्निशं तद्व्यापारव्याकुलितमतिः परितप्यते, तदेवम् अनन्तरोक्तया नीत्या विपाकं स्वानुष्ठानस्य 'आदाय' प्राप्य, विवेकमिति वा क्वचित्पाठः, तद्विपाकं विवेकं वा 'आदाय' - गृहीत्वा स्त्रीभिश्चारित्रपरिपन्थिनीभिः सार्धं 'संवासो' वसतिरेकत्र 'न कल्पते' न युज्यते, कस्मिन्, 'द्रव्यभूते' मुक्तिगमनयोग्ये रागद्वेषरहिते वा साधौ, यतस्ताभिः सार्धं संवासोऽवश्यं विवेकिनामपि सदनुष्ठानविघातकारीति ॥१०॥ टीकार्थ - इसके पश्चात् स्त्री के पाश में बंधा हुआ वह साधु जैसे कूटपाश में बंधा हुआ मृग दुःख पाता है, उसी तरह अपने कुटुम्ब का पोषण करने के लिए रात-दिन क्लेश भोगता हुआ पश्चात्ताप करता है। कारण यह है कि गृह में निवास करनेवाले पुरुषों को ये बातें अवश्य होती हैं, जैसे कि - कौन क्रोधी है, कौन समचित्त है, कैसे उसे वश करूं, वह मुझको कैसे धन दे, किस दानी को मैने छोड़ दिया है? कौन विवाहित है और कौन कुमार है, इस प्रकार चिन्ता करता हुआ जीव पाप का भार बांधता है। तथा वह जीव पश्चात्ताप करता हुआ कहता है कि मैंने कुटुम्ब का पोषण करने के लिए अनेक कुकर्म किये, उन कुकर्मों के कारण मैं अकेला दुःख भोगता हूं परन्तु फल भोगनेवाले अन्यत्र चले गये । ___ इस प्रकार अनेक रीति से महामोहात्मक कुटुम्बपाश में पड़ा हुआ पुरुष पश्चात्ताप करता है । इसी बात को शास्त्रकार दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं । जैसे कोई पुरुष विषमिश्रित अन्न खाकर पीछे जहर के वेग से आकुल होकर पश्चात्ताप करता है कि वर्तमान सुख का रसिक बनकर मुझ पापी ने परिणाम में कष्ट देनेवाला ऐसा भोजन क्यों खाया? इसी तरह स्त्री के पाश में बंधा हुआ पुरुष भी पुत्र, पौत्र, कन्या, दामाद, बहिन, भतीजा और भान्जा आदि के लिए भोजन, वस्त्र, विवाह, भूषण तथा उनका जातकर्म और मृतकर्म एवं उनके रोग की चिकित्सा आदि की चिन्ता से आकुल होकर अपने शरीर का कर्तव्य भी भूल जाता है, वह इस लोक तथा से रहित होकर अपने कुटुम्ब पोषण के व्यापार में ही व्याकुलचित्त रहता हुआ पश्चात्ताप करता है । अतः ऊपर कहे हुए विपाक का विचारकर (कई पुस्तकों में 'विवेक' यह पाठ है) अथवा विवेक को ग्रहण करके चारित्र की विघ्नकारिणी स्त्रियों के साथ एक स्थान में निवास करना मुक्तिगमनयोग्य अथवा रागद्वेषवर्जित साधु को उचित नहीं है क्योंकि - स्त्रियों के साथ निवास करना विवेकी पुरुषों के उत्तम अनुष्ठान का भी विघातक होता है ॥१०॥ स्त्रीसम्बन्धदोषानुपदर्योपसंहरन्नाह - स्त्री के सम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले दोषों को दिखलाकर अब शास्त्रकार उसका उपसंहार करते हुए कहते हैंतम्हा उ वज्जए इत्थी, विसलित्तं व कंटगं नच्चा । ओए कुलाणि वसवत्ती, आघाते ण सेवि णिग्गंथे ॥११॥ 1. क्रोधिकः कः समचित्तः कथं उपनय कथं ददातु वित्तं का उद्घाटकः परिहृतः परिणीतः को वा कुमारकः पतितो जीवः खण्डस्फेटैः प्रबध्नाति पापभा।।१।। २५८

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