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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा ६-७
उपसर्गाधिकारः टीका - 'उत्तराः' प्रधानाः उत्तरोत्तरजाता वा मधुरो - मनोज्ञ उल्लाप: - आलापो येषां ते तथाविधाः पुत्राः 'ते' तव 'तात' पुत्र! 'क्षुल्लका' लघवः तथा 'भार्या' पत्नी ते 'नवा' प्रत्यग्रयौवना अभिनवोढा वा मा असौ त्वया परित्यक्ता सती अन्यं जनं गच्छेत् - उन्मार्गयायिनी स्याद्, अयं च महान् जनापवाद इति ॥५॥ अपि च -
टीकार्थ - हे तात! तुम्हारे पुत्र बहुत उत्तम हैं अथवा एक-एक कर के उत्पन्न हुए तुम्हारे पुत्र मधुरभाषी और अभी बच्चे हैं । हे तात! तुम्हारी स्त्री भी नवयौवना है, वह तुम्हारे द्वारा छोड़ी हुई यदि दूसरे पुरुष के पास चली जाय अर्थात् उन्मार्गगामिनी हो जाय तो महान् लोकापवाद होगा ॥५॥
एहि ताय ! घरं जामो, मा य कम्मे सहा वयं । बितियंपि ताय ! पासामो, जामु ताव सयं गिहं
॥६॥ छाया - एहि तात। गृहं यामो मा त्वं कर्मसहा वयम् । द्वितीयमपि तात! पश्यामो यामस्तावत्स्वकं गृहम् ॥
__ अन्वयार्थ - (तात) हे तात! (एहि) आओ (घरं जामो) घर चलें (मा य) अब तुम कोई काम मत करना (वयं कम्मे सहा) हम लोग तुम्हारा सब कार्य करेंगे । (ताय) हे तात! (बितियंपि) अब दूसरी बार (पासामो) तुम्हारा काम हम देखेंगे (ताव सयं गिह जामु) अतः चलो हमलोग अपने घर चलें ।
भावार्थ - हे तात ! आओ घर चलें । अब से तुम कोई काम मत करना । हम लोग तुम्हारा सब काम कर दिया करेंगे । एक बार काम से घबराकर तुम भाग आये परंतु अब दूसरी बार हम लोग तुम्हारा सब काम कर देंगे, आओ हम अपने घर चलें।
टीका - जानीमो वयं यथा त्वं कर्मभीरुस्तथापि 'एहि' आगच्छ गृहं 'यामो' गच्छामः । मा त्वं किमपि साम्प्रतं कर्म कृथाः, अपि तु तव कर्मण्युपस्थिते वयं सहायका भविष्यामः - साहाय्यं करिष्यामः । एकवारं तावद्गृहकर्मभिर्भग्नस्त्वं तात! पुनरपि द्वितीयं वारं 'पश्यामो' द्रक्ष्यामो यदस्माभिः सहायैर्भवतो भविष्यतीत्यतो 'यामो' गच्छामः तावत् स्वर्क गृहं कुर्वे तदस्मद्वचनमिति ।।६।। किञ्च -
टीकार्थ - परिवारवाले कहते हैं कि हे तात! यह हम जानते हैं कि "तुम घर के काम काज से डरते हो' तो भी आओ हम घर चलें। अबसे तम कोई काम मत करना. किन्त काम उपस्थित होने करेंगे। हे तात ! एक-बार घर के कार्य से तुम घबरा गये थे परंतु अब चलकर देखो कि हम लोग तुम्हारी सहायता किस प्रकार करते हैं ? अतः हे तात! हमारा कहना मानो चलो हम अपने घर चलें ॥६।।
गन्तुं ताय ! पुणाऽऽगच्छे, ण तेणासमणो सिया। अकामगं परिक्कम्मं, को ते वारेउमरिहति ?
॥७॥ छाया - गत्वा तात! पुनरागच्छेनतेनाश्रमणः स्याः । अकामकं पराक्रमन्तं कस्त्वां वारयितुमर्हति ॥
अनवयार्थ - (हे ताय!) हे तात! (गन्तुं) एकबार घर जाकर (पुणा) फिर (आगच्छे) आ जाना (तेण) इससे (ण असमणो सिया) तुम अश्रमण नहीं हो सकते। । (अकामगं) घर के कामकाज में इच्छा रहित होकर (परिक्कम्म) अपनी इच्छानुसार कार्य करते हुए (ते) तुमको (को) कौन (वारेउमरिहति) वारण कर सकता है ?
भावार्थ - हे तात! एकबार घर चलकर फिर आ जाना, ऐसा करने से तुम अश्रमण नहीं हो सकते । घर के कार्य में इच्छा रहित तथा अपनी रुचि के अनुसार कार्य करते हुए तुमको कौन निषेध कर सकता है ?
टीका - 'तात' पुत्र! गत्वा गृहं स्वजनवर्गं दृष्ट्वा पुनरागन्ताऽसि, न च 'तेन' एतावता गृहगमनमात्रेण त्वमश्रमणो भविष्यसि, 'अकामगं'ति अनिच्छन्तं गृहव्यापारेच्छारहितं 'पराक्रमन्तं' स्वाभिप्रेतानुष्ठानं कुर्वाणं कः 'त्वां'
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