Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 262
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने तृतीयोद्देशः गाथा १९ जाति, युद्ध में हारकर पहाड़ का शरण लेती है । टीका रागश्च - प्रीतिलक्षणो द्वेषश्च - तद्विपरीतलक्षणस्ताभ्यामभिभूत आत्मा येषां परतीर्थिकानां ते तथा, ‘मिथ्यात्वेन' विपर्यस्तावबोधेनातत्त्वाध्यवसायरूपेण 'अभिद्रुता' व्याप्ताः सद्युक्तिभिर्वादं कर्तुमसमर्थाः क्रोधानुगा 'आक्रोशान् 'असभ्यवचनरूपांस्तथा दण्डमुष्ट्यादिभिश्च हननव्यापारं 'यान्ति' आश्रयन्ते । अस्मिन्नेवार्थे प्रतिपाद्ये दृष्टान्तमाह यथा 'टङ्कणा' म्लेच्छविशेषा दुर्जया यदा परेण बलिना स्वानीकादिनाऽभिद्रूयन्ते तदा ते नानाविधैरप्यायुधैर्योद्धुमसमर्थाः सन्तः पर्वतं शरणमाश्रयन्ति, एवं तेऽपि कुतीर्थिका वादपराजिताः क्रोधाद्युपहतदृष्टय आक्रोशादिकं शरणमाश्रयन्ते, न च ते इदमाकलय्य प्रत्याक्रोष्टव्याः, तद्यथा - उपसर्गाधिकारः 'अकोसहणणमारणधम्मब्भंसाण बालसुलभाणं । लाभं मन्नइ धीरो जहुत्तराणं अभावंमि ||१|| ॥ १८॥ किञ्चान्यत् - टीकार्थ प्रीति को राग कहते हैं और उससे विपरीत अर्थात् अप्रीति को द्वेष कहते हैं । इन राग और द्वेष के द्वारा जिनकी आत्मा दबी हुई है ऐसे, तथा मिथ्या अर्थ को बताने वाले विपरीत ज्ञान से भरे हुए अन्यतीर्थी जब उत्तम युक्तिओं के द्वारा वाद करने में समर्थ नहीं होते हैं, तब गाली आदि असभ्य वचन बोलने लगते हैं, तथा डंडा और मुक्का आदि का प्रहार भी करने लगते हैं। इस बात को बताने के लिए शास्त्रकार दृष्टान्त कहते हैं- जैसे दुःख से जीते जाने योग्य टंकन नामक कोई म्लेच्छ जातिविशेष किसी बलवान् पुरुष की सेना के द्वारा जब भगायी जाती है तब पर्वत का आश्रय लेती है, इसी तरह वे अन्यतीर्थी जब वाद में हार जातें हैं तब क्रोधित होकर गाली आदि के शरण में जाते हैं। उन गाली देनेवाले अन्यतीर्थियों को उत्तर में गाली नहीं देनी चाहिए क्योंकि गाली देना, हनन करना अथवा मारना या धर्मभ्रष्ट करना ये कार्य बालकों के हैं, धीर पुरुष, इन बातों का उत्तर न देना ही लाभ मानते हैं ॥ १८ ॥ बहुगुणप्पगप्पाईं, कुज्जा अत्तसमाहिए । tus it विरुज्झेज्जा, तेण तं तं समायरे ।।१९।। छाया - बहुगुणप्रकल्पानि कुर्य्यादात्मसमाधिकः । येनाऽव्यो न विरुध्येत तेन तत्तत् समाचरेत् ॥ अन्वयार्थ - (अत्तसमाहिए) जिसकी चित्तवृत्ति प्रसन्न है, वह मुनि ( बहुगुणप्पगप्पाई ) परतीर्थी के साथ वाद के समय जिनसे बहुत गु उत्पन्न होते हैं, ऐसे अनुष्ठानों को (कुज्जा) करे। (जेण) जिससे (अत्रे) दूसरा मनुष्य (णो विरुज्झेज्जा) अपना विरोधी न बने ( तं तं तेण समायरे ) वह वह अनुष्ठान करे । भावार्थ - परतीर्थी के साथ वाद करता हुआ मुनि अपनी चित्तवृत्ति को प्रसन्न रखता हुआ, जिससे अपने पक्ष की सिद्धि और पर पक्ष की असिद्धि हो, ऐसे प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण आदि का प्रतिपादन करे तथा जिस कार्य के करने से या जैसा भाषण करने से अन्य पुरुष अपना विरोधी न बने वैसा कार्य अथवा भाषण करे । टीका 'बहवो गुणाः ' स्वपक्षसिद्धिपरदोषोद्भावनादयो माध्यस्थ्यादयो वा प्रकल्पन्ते - प्रादुर्भवन्त्यात्मनि येष्वनुष्ठानेषु तानि बहुगुणप्रकल्पानि - प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनादीनि माध्यस्थ्यवचनप्रकाराणि वा अनुष्ठानानि साधुर्वादकाले अन्यदा वा 'कुर्यात्' विदध्यात् स एव विशिष्यते आत्मनः 'समाधिः' चित्तस्वास्थ्यं यस्य स भवत्यात्मसमाधिकः, एतदुक्तं भवति - येन येनोपन्यस्तेन हेतुदृष्टान्तादिना आत्मसमाधिः स्वपक्षसिद्धिलक्षणो माध्यस्थ्यवचनादिना वा परानुपघातलक्षणः समुत्पद्यते तत् तत् कुर्यादिति तथा येनानुष्ठितेन वा भाषितेन वा अन्यतीर्थिको धर्मश्रवणादौ वाऽन्यः प्रवृत्तो 'न विरुध्येत' न विरोधं गच्छेत्, तेन पराविरोधकारणेन तत्तदविरुद्धमनुष्ठानं वचनं वा 'समाचरेत्' कुर्यादिति ॥१९॥ 1. आक्रोशहननमारणधर्म भ्रंशानां बालसुलभानां ( मध्ये ) । लाभं मन्यते धीरो यथोत्तराणामभावे ||१|| २२२

Loading...

Page Navigation
1 ... 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334