Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 285
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकेः प्रस्तावना स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् भव के बाद ही स्त्री भव को प्राप्त करनेवाला है) बद्धायुष्का (जिसने स्त्री की आयु बांध ली है) अभिमुखनामगोत्रा (स्त्री नाम गोत्र जिसके अभिमुख है, वह जीव) । जिसके द्वारा वस्तु पहचानी जाती है, उसे चिह्न कहते हैं, स्तन और स्त्री की तरह कपडा आदि पहनना स्त्री के चिह्न हैं । जो चिह्न मात्र से स्त्री है, उसे चिह्न स्त्री कहते हैं । जिसका स्त्रीवेद नष्ट हो गया है, ऐसा छमस्थ अथवा केवली अथवा अन्य कोई जीव जो स्त्री का वेष धारण करता है, वह चिह्न स्त्री है । पुरुष भोगने की इच्छा रूप स्त्रीवेद के उदय को वेदस्त्री कहते हैं। __ अभिलापस्त्री और भाव स्त्री को नियुक्तिकार गाथा के उत्तरार्द्ध के द्वारा बतलाते हैं । जो कहा जाता है, उसे अभिलाप कहते हैं, स्त्री लिङ्ग को कहनेवाला शब्द अभिलाप स्त्री है, जैसे शाला ,माला और सिद्धि इत्यादि शब्द । भाव स्त्री दो प्रकार की है - आगम से और नोआगम से, जो जीव स्त्री पदार्थ को जानता हुआ उसमें उपयोग रखता हैं, यह आगम से भाव स्त्री है, क्योंकि वस्तु में उपयोग रखना भाव कहलाता है, नोआगम से भाव स्त्री वह है, जो जीव स्त्रीवेदरूप वस्तु में उपयोग रखता है क्योंकि उपयोग उस जीव से भिन्न नहीं है, जैसे अग्नि में उपयोग रखनेवाला बालक अग्नि ही हो जाता है, इसी तरह यहां भी समझना चाहिए । अथवा स्त्री वेद को उत्पन्न करनेवाले उदय को प्राप्त जो कर्म हैं, उनमें जो उपयोग रखता है अर्थात् स्त्रीवेदनीय कर्मों का जो अनुभव करता है, वह नोआगम से भावस्त्री है। स्त्री का निक्षेप इतना ही है। परिज्ञा का निक्षेप शस्त्रपरिज्ञा की तरह समझना चाहिए ॥५४॥नि। साम्प्रतं स्त्रीविपक्षभूतं पुरुषनिक्षेपार्थमाह - अब स्त्री के विपक्षभूत पुरुष का निक्षेप करने के लिए कहते हैं - णामं ठयणा दविए खेत्ते काले य पज्जणणक्मे । भोगे गुणे य भाये दस एए पुरिसणिक्ख्या ॥५५॥ नि० टीका - 'नाम' इति संज्ञा तन्मात्रेण पुरुषो नामपुरुषः - यथा घटः पट इति, यस्य वा पुरुष इति नामेति, 'स्थापनापुरुषः' काष्ठादिनिर्वर्तितो जिनप्रतिमादिकः, द्रव्यपुरुषो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो नोआगमत एकभविको बद्धायुष्कोऽभिमुखनामगोत्रश्चेति, द्रव्यप्रधानो वा मम्मणवणिगादिरिति, यो यस्मिन् सुराष्ट्रादौ क्षेत्रे भवः स क्षेत्रपुरुषो यथा सौराष्ट्रिक इति, यस्य वा यत् क्षेत्रमाश्रित्य पुंस्त्वं भवतीति, यो यावन्तं कालं पुरुषवेदवेद्यानि कर्माणि वेदयते स कालपुरुष इति, यथा - 'पुरिसे णं भन्ते! पुरिसोत्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गो०, जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं जो जम्मि काले पुरिसो भवइ, जहा कोइ एगंमि पक्खे पुरिसो एगंमि नपुंसगो'त्ति । प्रजन्यतेऽपत्यं येन तत्प्रजननं शिश्नम्- लिङ्गम् तत्प्रधानः पुरुषः अपरपुरुषकार्यरहितत्वात् प्रजननपुरुषः, कर्म - अनुष्ठानं तत्प्रधानः पुरुषः कर्मपुरुषः-कर्मकरादिकः, तथा भोगप्रधानः पुरुषो भोगपुरुषः - चक्रवर्त्यादिः, तथा गुणाः - व्यायामविक्रमधैर्यसत्त्वादिकास्तत्प्रधानः पुरुषो गुणपुरुषः, भावपुरुषस्तु पुंवेदोदये वर्तमानस्तद्वेद्यानि कर्माण्यनुभवन्निति, एते दश पुरुषनिक्षेपा भवन्ति । टीकार्थ - संज्ञा को नाम कहते हैं। जो संज्ञा मात्र से पुरुष है, वह नाम पुरुष कहलाता है जैसे घट, पट शब्द नाम पुरुष हैं । अथवा जिसका नाम पुरुष है, वह नाम पुरुष है । स्थापना पुरुष लकड़ी आदि की बनायी हुई जिन प्रतिमा आदि है । द्रव्यपुरुष ज्ञशरीर, भव्यशरीर से व्यतिरक्त नोआगम से तीन प्रकार के हैं। जैसे किएकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र । अथवा धन में जिसका अत्यन्त मन होता है, उस द्रव्यप्रधान पुरुष को द्रव्यपुरुष कहते हैं, जैसे मम्मण वणिक् आदि । क्षेत्र पुरुष वह है, जो जिस देश में जन्मा है, जैसे सुराष्ट्र देश में जन्मा हुआ पुरुष सौराष्ट्रिक कहलाता है । अथवा जिसको जिस क्षेत्र के आश्रय से पुरुषत्व प्राप्त होता है, वह उस क्षेत्र का क्षेत्र पुरुष है । तथा जो जितने काल तक पुरुषवेदनीय कर्मों को भोगता है, वह कालपुरुष है जैसे कि - "(पुरिसेणं) हे भगवन्! पुरुष, काल से कब तक पुरुषपन में होता है ? हे गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट जो जिस काल में स्वयं पुरुषपन को अनुभव करता है, जैसे कोई एक पक्ष में पुरुषपन को अनुभव करता है और दूसरे पक्ष में नपुंसकपने को भोगता है । जिससे प्रजा वगैरह उत्पन्न होती है, उसे प्रजनन कहते हैं, वह पुरुष का चिह्न है। जिसको वही प्रधान है, वह प्रजनन पुरुष है ! कारण यह है कि उससे पुरुष २४५

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