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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकः प्रस्तावना
स्रीपरिज्ञाध्ययनम् के योग्य दूसरा कार्य नहीं होता है, इसलिए उसे प्रजनन पुरुष कहते हैं । अनुष्ठान को कर्म कहते हैं, वह कर्म
प्रधान है, उसे कर्मपुरुष कहते हैं । मजूर और कारीगर आदि कर्मपुरुष हैं। तथा भोगप्रधान पुरुष को भोगपुरुष कहते हैं । चक्रवर्ती आदि भोगपुरुष हैं । तथा व्यायाम (कसरत) विक्रम (बल) धैय सत्त्व आदि गुण हैं, ये गुण जिसमें प्रधान हैं, उसे गुण पुरुष कहते हैं । भावपुरुष वह है जो पुरुषवेदनीय कर्म के उदय में वर्तमान रहकर पुरुष वेदनीय कर्मों का अनुभव कर रहा है । इस प्रकार पुरुष के दश निक्षेप होते हैं ॥५५॥नि।
- साम्प्रतं प्रागुल्लिङ्गितमुद्देशार्थधिकारमधिकृत्याह -
- अब पूर्व में जिसकी सूचना की गयी है, उस उद्देशार्थाधिकार के विषय में नियुक्तिकार कहते हैं - पढमे संथवसंलयमाइहि खलणा उ होति सीलस्स् । बितिए इहेव खलियस्स अवत्था कम्मबंधो य ॥५६॥ नि।
टीका - प्रथमे उद्देशके अयमर्थाधिकारः तद्यथा - स्त्रीभिः सार्धं 'संस्तवेन' परिचयेन तथा 'संलापेन' भिन्नकथाद्यालापेन, आदिग्रहणादङ्गनिरीक्षणादिना कामोत्काचकारिणा भवेदल्पसत्त्वस्य 'शीलस्य' चारित्रस्य स्खलना तुशब्दात्तत्परित्यागो वेति, द्वितीये त्वयमर्थाधिकारः, तद्यथा - शीलस्खलितस्य साधोः 'इहैव' अस्मिन्नेव जन्मनि स्वपक्षपरपक्षकृता तिरस्कारादिका विडम्बना तत्प्रत्ययश्च कर्मबन्धः, ततश्च संसारसागरपर्यटनमिति, किं स्त्रीभिः कश्चित् शीलात् प्रच्याव्यात्मवशः कृतो येनैवमुच्यते?
टीकार्थ - प्रथम उद्देशक में कहा है कि स्त्रियों के साथ परिचय रखने से तथा भिन्नकथा वगैरह (चारित्र को नाश करनेवाली) बातों का आलाप करने से तथा आदि शब्द से काम को उत्पन्न करनेवाले उन स्त्रियों के अंगोपांगों को देखने आदि से अल्प पराक्रमी पुरुष के शील यानी चारित्र की स्खलना (व्रतभंग) होती है अथवा तु शब्द से जानना चाहिए कि वह पुरुष दीक्षा को छोड़ देता है । द्वितीय उद्देशक में यह कहा है कि - शीलभ्रष्ट साधु की इसी जन्म में अपने पक्ष और पर पक्ष की तरफ से तिरस्कार वगैरह का दुःख होता है तथा शील को भंग करने से अशुभ कर्म का बन्ध होता है और उसे संसारसागर में भ्रमण करना पड़ता है । शिष्य का प्रश्नक्या स्त्रियों ने किसी को शीलभ्रष्ट करके अपने वश में किया है, जिससे तुम ऐसा कहते हो? ॥५६॥नि०।
- कृत इति दर्शयितुमाह -
- हां, किया है सो कहते हैं - सूरा मो मलंता कड़तवियाहिं उवहिप्पहाणाहिं । गहिया हु अभयपज्जोयकूलवालादिणो बहवे ॥५४॥ नि०
टीका - बहवः पुरुषा अभयप्रद्योतकूलवालादयः शूरा वयमित्येवं मन्यमानाः, मो इति निपातो वाक्यालङ्कारार्थः, 'कृत्रिमाभिः' सद्भावरहिताभिः स्त्रीभिस्तथा उपधिः - माया तत्प्रधानाभिः कृतकपटशताभिः 'गृहीता' आत्मवशतां नीताः, केचन राज्यादपरे शीलात् प्रच्याव्येहैव विडम्बनां प्रापिताः, अभयकुमारादिकथानकानि च मूलादावश्यकादवगन्तव्यानि, कथानकत्रयोपन्यासस्तु यथाक्रमं अत्यन्तबुद्धिविक्रमतपस्वित्वख्यापनार्थ इति ॥
टीकार्थ - अभय, प्रद्योत और कूलवाल वगैरह बहुत से पुरुष अपने को शूरवीर मानते थे (मो शब्द निपात है, वाक्य की शोभा के लिए आया है) परन्तु वे कृत्रिम अर्थात् अंदर के भाव से वर्जित तथा सैकडो माया करनेवाली स्त्रियों के द्वारा वश किये जा चुके हैं। कई तो स्त्रियों के द्वारा राज्य से भ्रष्ट किये गये हैं और कई शील से भ्रष्ट किये जाकर इसी जन्म में तिरस्कार के भागी हुए हैं। अभयकुमार आदि की कथायें मूल आवश्यक से जाननी चाहिए । तीनों की कथा बताने का कारण यह है कि अभयकुमार में अत्यन्त बुद्धि थी और प्रद्योत शूरवीर था और कुलवाल महान् तपस्वी था । इन तीनों को स्त्रियों ने कपट से वश में किया था ॥५७॥नि०।