Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 272
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशः गाथा ९ उपसर्गाधिकारः भावार्थ - सुख से ही सुख होता है, इस मिथ्या सिद्धान्त को मानने वाले शाक्य आदि को शास्त्रकार कहते हैं किआप लोग जीव हिंसा करते हैं और झूठ बोलते हैं तथा बिना दी हुई वस्तु लेते हैं एवं मैथुन और परिग्रह में भी वर्तमान रहते हैं । इस कारण आप लोग संयमी नहीं हैं । टीका - प्राणातिपातमृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहेषु वर्त्तमाना असंयता यूयं वर्तमानसुखैषिणोऽल्पेन वैषयिकसुखाभासेन पारमार्थिकमेकान्तात्यन्तिकं बहु मोक्षसुखं विलुम्पथेति, किमिति ? यतः पचनपाचनादिषु क्रियासु वर्तमानाः सावद्यानुष्ठानारम्भतया प्राणातिपातमाचरथ, तथा येषां जीवानां शरीरोपभोगो भवद्भिः क्रियते तानि शरीराणि तत्स्वामिभिरदत्तानीत्यदत्तादानाचरणं तथा गोमहिष्यजोष्ट्रादिपरिग्रहात्तन्मैथुनानुमोदनादब्रह्मेति तथा प्रव्रजिता वयमित्येवमुत्थाय गृहस्थाचरणानुष्ठान्मृषावादः तथा धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिपरिग्रहात्परिग्रह इति ॥ ८ ॥ टीकार्थ - आप लोग जीवघात, मिथ्या भाषण, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह में वर्तमान रहने के कारण संयम हीन हैं । आप लोग वर्तमान सुख की इच्छा करते हुए तुच्छ विषय सुख, जो वस्तुतः सुख का आभास मात्र है, उसके लोभ में पड़कर सत्य एकान्तिक, आत्यन्तिक तथा महान् मोक्षसुख का नाश कर रहे हैं । आप लोग पचन और पाचन आदि क्रियाओं में वर्तमान रहते हुए सावद्य कार्य का अनुष्ठान करके जीव हिंसा करते हैं । तथा आप लोग जिन जीवों के शरीर का उपभोग करते हैं, वे शरीर उनके स्वामिओं के द्वारा आपको नहीं मिले हैं, इसलिए आप अदत्तादान का आचरण करते हैं । तथा आप लोग गाय, भैंस और ऊंट आदि पशुओं को रखकर उनके मैथुन का अनुमोदन करते हैं, इसलिए आप अब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं। एवं आप अपने को प्रव्रजित कहकर ऊठे हुए भी गृहस्थों के आचरण का अनुष्ठान करते हैं इसलिए आप मिथ्याभाषण का सेवन करते हैं । तथा आप लोग धन, धान्य, द्विपद और चतुष्पदरूप परिग्रह रखते हैं, इसलिए आप परिग्रह में वर्तमान हैं ||८|| साम्प्रतं मतान्तरदूषणाय पूर्वपक्षयितुमाह - अब दूसरे मत को दूषित करने के लिए शास्त्रकार पूर्वपक्ष करते हुए कहते हैं एवमेगे उपासत्था, पन्नवंति अणारिया । इत्थीवसं गया बाला, जिणसासणपरम्मुहा - 11811 छाया - एवमेके तु पार्श्वस्थाः प्रज्ञापयन्त्यनार्याः । स्त्रीवशङ्गता बालाः जिनशासनपराङ्मुखाः ॥ अन्वयार्थ - (इत्थीवसं गया) स्त्री के वश में रहनेवाले (बाला) अज्ञानी ( जिणसासणपरम्मुहा) जैनेन्द्र के शासन से पराङ्मुख (अणारिया) अनार्य्य (एगे पासत्था) कोई पार्श्वस्थ ( एवं ) इस प्रकार (पनवंति ) कहते हैं । भावार्थ - स्त्री के वश में रहनेवाले अज्ञानी जैनशास्त्र से विमुख अनार्य्य कोई पार्श्वस्थ आगे की गाथाओं द्वारा कही जानेवाली बातें कहते हैं । टीका तु शब्दः पूर्वस्माद्विशेषणार्थः, 'एवमिति वक्ष्यमाणया नीत्या, यदिवा प्राक्तन एव श्लोकोऽत्रापि सम्बन्धनीयः, एवमिति प्राणातिपातादिषु वर्तमाना 'एके' इति बौद्धविशेषा नीलपटादयो नाथवादिकमण्डलप्रविष्टा वा शैव विशेषाः, सदनुष्ठानात् पार्श्वे तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः, स्वयूथ्या वा पार्श्वस्थावसन्नकुशीलादयः स्त्रीपरीषहपराजिताः, त एवं 'प्रज्ञापयन्ति' प्ररूपयन्ति अनार्याः, अनार्यकर्मकारित्वात्, तथाहि ते वदन्ति - प्रियादर्शनमेवास्तु, किमन्यैर्दर्शनान्तरैः ? प्राप्यते येन निर्वाणं, सरागेणापि चेतसा ||१|| किमित्येवं तेऽभिदधतीत्याह - 'स्त्रीवशं गताः' यतो युवतीनामाज्ञायां वर्तन्ते 'बाला' अज्ञा रागद्वेषोपहतचेतस इति, रागद्वेषजितो जिनास्तेषां शासनम् - आज्ञा कषायमोहोपशमहेतुभूता तत्पराङ्मुखाः संसाराभिष्वङ्गिणो जैनमार्गविद्वेषिणः 'एतद्' वक्ष्यमाणमूचुरिति ॥९॥ 1. चक्षुषेति प्र० । 53 3

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