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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशकः गाथा १२
उपसर्गाधिकारः तडागोदकासंस्पर्शेन किल भवत्येवमरक्तद्विष्टतया दर्भाधुत्तारणात् स्त्रीगात्रासंस्पर्शेन पुत्रार्थ न कामार्थं ऋतुकालाभिगामितया शास्त्रोक्तविधानेन मैथुनेऽपि न दोषानुषङ्गः, तथा चोचुस्ते -
धर्मार्थ पुत्रकामस्य, स्वदारेष्वधिकारिणः । ऋतुकाले विधानेन, दोषस्तत्र न विद्यते ||१||
इति एवमुदासीनत्वेन व्यवस्थितानां दृष्टान्तनैव नियुक्तिकारो गाथात्रयेणोत्तरदानायाह - जह णाम मंडलग्गेण सिरं छेत्तू ण कस्सइ मणुस्सो । अच्छेउज पराहुत्तो किं नाम ततो ण घिप्पेज्जा? ॥५१॥नि० जह वा विसगंडूसं कोई घेत्तूण नाम तुण्हिक्को । अण्णेण अदीसन्तो किं नाम ततो न य मरेज्जा! ॥५२॥ नि० जहा नाम सिरिघराओ कोइ रयणाणि घेत्तूणं । अच्छेज्ज पराहतो किं णाम ततो न घेप्पेज्जा? ॥५३॥ नि०
यथा (ग्रन्थाग्रम् ३०००) नाम कश्चिन्मण्डलाग्रेण कस्यचिच्छिरश्छित्त्वा पराङ्मुखस्तिष्ठेत्, किमेतावतोदासीनभावावलम्बनेन 'न गृह्येत' नापराधी भवेत्? । तथा-यथा कश्चिद्विषगण्डूषं 'गृहीत्वा' पीत्वा नाम तूष्णींभावं भवेदन्येन चादृश्यमानोऽसौ किं नाम 'ततः' असावन्यादर्शनात् न म्रियेत? तथा - यथा कश्चित् श्रीगृहाद्भाण्डागाराद्रत्नानि महा_णि गृहीत्वा पराङ्मुखस्तिष्ठेत्, किमेतावताऽसौ न गृह्यतेति? । अत्र च यथा - कश्चित् शठतया अज्ञतया वा शिरश्छेदविषगण्डूषरत्नापहाराख्ये सत्यपि दोषत्रये माध्यस्थ्यमवलम्बेत, न च तस्य तदवलम्बनेऽपि निर्दोषतेति, एवमत्राप्यवश्यंभाविरागकार्ये मैथुने सर्वदोषास्पदे संसारवर्द्धके कुतो निर्दोषतेति, तथा चोक्तम् -
प्राणिनां बाधकं चैतच्छाचे गीतं महर्षिभिः । नलिकातप्तकणकप्रवेशज्ञाततस्तथा ||१|| मूलं चैतदधर्मच्य, भवभावप्रवर्धनम् । तस्माद्विषालवच्याज्यमिदं पापमनिच्छता ||२|| इति नियुक्तिगाथात्रयतात्पर्यार्थः ।।१२।।
टीकार्थ - जिस प्रकार आकाश में चलनेवाली कपिञ्जल नाम की चिड़िया आकाश में ही रहकर बिना हिलाये जल को पी लेती है, इसी तरह जो पुरुष रागद्वेष रहित बुद्धि से पुत्रोत्पत्ति के लिए स्त्री के शरीर को कुशा से ढंक कर उसके साथ समागम करता है, उसको उक्त कपिजल पक्षी की तरह दोष नहीं होता है। यहां मैथुन के विषय में अन्यतीर्थियों की मान्यता तीन प्रकार की कही गयी है । कोई कहते हैं कि-जैसे फोड़े को दबाकर उसका मवाद निकाल दिया जाता है, इसी तरह स्त्री के साथ समागम किया जाता है । कोई कहते हैं कि-जैसे भेड़ का दूसरे को पीड़ा न देते हुए जल पीना है, इसी तरह दूसरे को पीड़ा न देनेवाला अपना तथा दूसरे को सुखोत्पादक मैथुन है । इसी तरह तीसरे की मान्यता है कि जैसे कपिञ्जल पक्षी केवल चोंच के अग्र भाग के सिवाय दूसरे अङ्गोद्वारा तालाब के जल को स्पर्श न करती हुए जलपान करती है, इसी तरह जो पुरुष रागद्वेष रहित बुद्धि से स्त्री के शरीर को कुशा से ढंककर उसके शरीर को न छुते हुए पुत्र के निमित्त परंतु काम के निमित्त नहीं, शास्त्रोक्त विधान के अनुसार ऋतु काल में समागम करता है, उसको दोष नहीं होता है। इसी प्रकार उन्होंने अपने शास्त्र में कहा है -
(धर्मार्थम्) अर्थात् धर्मरक्षा के लिए पुत्रोत्पत्ति के निमित्त अपनी स्त्री में अधिकार रखनेवाले पुरुष के लिए ऋतुकाल में स्त्री समागम का शास्त्रीय विधान होने से इसमें दोष नहीं होता है।
इस प्रकार उदासीन होकर रहनेवाले अन्यतीर्थियों का दृष्टान्त के द्वारा ही तीन गाथाओं से उत्तर देने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं -
__ जैसे कोई मनुष्य तलवार से किसी का शिर काटकर यदि पराङ्मुख होकर स्थित हो जाय तो क्या इस प्रकार उदासीन भाव के अवलम्बन करने से वह अपराधी नहीं हो सकता ? ॥५१॥ नि०।
तथा कोई मनुष्य यदि जहर का गण्डूष (घूट) लेकर उसे पी जाय और वह चुपचाप रहे तथा उसे कोई देखे भी नहीं तो क्या दुसरे के न देखने से वह मृत्यु को प्राप्त नहीं होगा? ॥५२॥ नि०।
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