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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशः गाथा २० उपसर्गाधिकारः विदध्यात्, तथा 'मृषावादम्' असद्भूतार्थभाषणं विशेषेण वर्जयेत्, तथा 'अदत्तादानं च व्युत्सृजेद्' दन्तशोधनमात्रमप्यदत्तं न गृह्णीयात्, आदिग्रहणान्मैथुनादेः परिग्रह इति, तच्च मैथुनादिकं यावज्जीवमात्महितं मन्यमानः परिहरेत् ॥ १९ ॥
टीकार्थ पहले जो कहा गया है कि 'स्त्रियाँ वैतरणी नदी की तरह दुस्तर हैं, अतः जिसने उनका त्याग कर दिया है । वे पुरुष समाधियुक्त होकर संसार को पार करते हैं और स्त्री के साथ संसर्ग करनेवाले पुरुष संसार में रहकर अपने कर्मों के द्वारा पीड़ित किये जाते हैं" इन सब बातों को साधु पुरुष जानकर अर्थात् स्त्री संसर्ग को त्याग करने योग्य और संयम को आदरने योग्य समझकर सुंदर व्रतों से युक्त और समितियों से सहित होकर संयम अनुष्ठान करे । यहां समितियुक्त होकर रहना बताकर उत्तर गुणों का कथन किया गया है । इस प्रकार रहता हुआ साधु मिथ्या भाषण को विशेष रूप से वर्जित करे तथा अदत्तादान का सर्वथा त्याग करे । बिना दिये दांत को शुद्ध करने के लिए तृणादि भी न लेवे । आदि शब्द से मैथुन आदि का ग्रहण अभीष्ट है, इसलिए अपना कल्याण समझकर साधु यावज्जीवन मैथुन आदि का सेवन न करे ॥ १९ ॥
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अपरव्रतानामहिंसाया वृत्तिकल्पत्वात् तत्प्राधान्यख्यापनार्थमाह -
दूसरे व्रत, अहिंसा की वृत्ति अर्थात् वाड़ के समान हैं परंतु अहिंसा प्रधान व्रत है, इस बात को बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं
उड्डम तिरियं वा, जे कई तसथावरा ।
सव्वत्थ विरतिं कुज्जा,
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॥२०॥
छाया
ऊर्ध्वमधस्तिर्य्यक्षु ये केचित् त्रसस्थावराः । सर्वत्र विरतिं कुर्य्यात् शान्तिनिर्वाणमाख्यातम् ॥ अन्वयार्थ - (उ) ऊपर (अहे) नीचे (तिरियं वा ) अथवा तिरछा (जे केई तसथावरा) जो कोई त्रस और स्थावर प्राणी हैं (सव्वत्थ) सर्वकाल में (विरति) विरति अर्थात् उनके नाश से निवृत्ति (कुज्जा) करनी चाहिए। (संति निव्वाणमाहियं) ऐसा करने से शान्तिरूपी निर्वाणपद की प्राप्ति कही गयी है ।
संति निव्वाणमाहियं
भावार्थ - ऊपर नीचे अथवा तिरछा जो कोई त्रस और स्थावर जीवं निवास करते हैं, उनकी हिंसा से सब काल में निवृत्त रहना चाहिए । ऐसा करने से जीव को शान्तिरूपी निर्वाणपद प्राप्त होता है ।
टीका - ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्ष्वित्यनेन क्षेत्रप्राणातिपातो गृहीतः, तत्र ये केचन त्रसन्तीति त्रसा - द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाः पर्याप्तापर्याप्तकभेदभिन्नाः, तथा तिष्ठन्तीति स्थावराः - पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकभेदभिन्ना इति, अनेन च द्रव्यप्राणातिपातो गृहीतः, सर्वत्र काले सर्वास्वस्थास्वित्यनेनापि कालभावभेदभिन्नः प्राणातिपात उपात्तो द्रष्टव्यः, तदेवं चतुर्दशस्वपि जीवस्थानेषु कृतकारितानुमतिभिर्मनोवाक्कायैः प्राणातिपातविरतिं कुर्यादित्यनेन पादोनेनापि श्लोकद्वयेन प्राणातिपातविरत्यादयो मूलगुणाः ख्यापिताः, साम्प्रतमेतेषां सर्वेषामेव मूलोत्तरगुणानां फलमुद्देशेनाह'शान्तिः' इति कर्मदाहोपशमस्तदेव च 'निर्वाणं' मोक्षपदं यद् 'आख्यातं' प्रतिपादितं, सर्वद्वन्द्वापगमरूपं तदस्यावश्यं चरणकरणानुष्ठायिनः साधोर्भवतीति ||२०||
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टीकार्थ ऊपर, नीचे और तिरछा कहकर क्षेत्र प्राणातिपात का ग्रहण किया गया है। जो प्राणी भय पाते हैं, वे त्रस कहलाते हैं । उन त्रस प्राणियों के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्त और अपर्याप्त भेद होते हैं । तथा जो प्राणी चलते, फिरते नहीं किन्तु सदा स्थित रहते हैं, वे स्थावर कहे जाते हैं । उन स्थावर प्राणियों के पृथिवी, जल, तेज, वायु, वनस्पति, सूक्ष्म- बादर पर्याप्त और अपर्याप्त रूप भेद होते हैं। यहां त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा का निषेध करके द्रव्यप्राणातिपात का ग्रहण किया गया है । तथा सब काल में अर्थात् सभी अवस्थाओं में प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए, यह कहकर काल और भाव भेद से भिन्न प्राणातिपात का
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