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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशकः गाथा १८-१९
उपसर्गाधिकारः स्त्र्यादिपरीषहपराजयस्य फलं दर्शयितुमाह -
स्त्री आदि के परीषह को पराजित करने का फल बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - एते ओघं तरिस्संति, समुदं ववहारिणो । जत्थ पाणा विसन्नासि, किच्चंती सयकम्मुणा
॥१८॥ छाया - एते ओघं तरिष्यन्ति समुद्रं व्यवहारिणः । यत्र प्राणाः विषण्णाः कृत्यन्ते स्वककर्मणा ॥
अन्वयार्थ - (एते) अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को जीतने वाले ये पूर्वोक्त पुरुष (ओघ) संसार को (तरिस्संति) पार करेंगे (समुई) जैसे समुद्र को (ववहारिणो) व्यापार करनेवाले वणिक् पार करते हैं । (जत्थ) जिस संसार में (विसना) पड़े हुए (पाणा) प्राणी (सयकम्मुणा) अपने कर्मों से (किच्चंती) पीड़ित किये जाते हैं।
भावार्थ - अनुकूल और प्रतिकूल उपसगों को जीतकर महापुरुषों द्वारा सेवित मार्ग से चलने वाले धीर पुरुष, जिस संसार सागर में पड़े हुए जीव अपने कर्मों के प्रभाव से नाना प्रकार की पीड़ा भोगते हैं, उसको इस प्रकार पार करेंगे जैसे समुद्र के दूसरे पार में जाकर व्यापार करनेवाला वणिक् लवणसमुद्र को पार करता है। ___टीका - य एते अनन्तरोक्ता अनुकूलप्रतिकूलोपसर्गजेतार एते सर्वेऽपि 'ओघं' संसारं दुस्तरमपि तरिष्यन्ति, द्रव्यौघदृष्टान्तमाह - 'समुद्र' लवणसागरमिव यथा 'व्यवहारिणः' सांयात्रिका यानपात्रेण तरन्ति, एवं भावौघमपि संसारं संयमयानपात्रेण यतयस्तरिष्यन्ति, तथा तीर्णास्तरन्ति चेति, भावौघमेव विशिनष्टि - 'यत्र' यस्मिन् भावौधे संसारसागरे 'प्राणाः' प्राणिनः स्त्रीविषयसङ्गाद्विषण्णाः सन्तः ‘कृत्यन्ते' पीडयन्ते 'स्वकृतेन' आत्मनाऽनुष्ठितेन पापेन 'कर्मणा' असद्वेदनीयोदयरूपेणेति ॥१८॥
टीकार्थ - अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को जीतनेवाले जो पुरुष पहले कहे गये हैं, वे सभी दुस्तर संसार सागर को पार करेंगे । इस विषय में द्रव्य ओघ का दृष्टान्त बतलाते हैं - जैसे जहाजों के द्वारा यात्रा करनेवाले पुरुष जहाज द्वारा लवण समुद्र को पार करते हैं, इसी तरह पूर्वोक्त साधु पुरुष भावरूपी ओघ को अर्थात् संसारसागर को संयमरूपी जहाज के द्वारा पार करेंगे तथा किया है और कर रहे हैं। यह भावरूपी ओघ कैसा है ? सो विशेषण के द्वारा शास्त्रकार बतलाते हैं - भावरूपी ओघ में अर्थात् संसार सागर में स्त्रीसंसर्ग के कारण पड़े हुए जीव अपने किये हुए असातावेदनीय के उदय रूपी पाप कर्म के प्रभाव से दुःख भोगते हैं ॥१८॥
साम्प्रतमुपसंहारव्याजेनोपदेशान्तरदित्सयाह -
अब शास्त्रकार इस प्रकरण को समाप्त करते हुए दूसरा उपदेश देने के लिए कहते हैं - तं च भिक्खू परिण्णाय, सुव्वते समिते चरे । मुसावायं च वज्जिज्जा, अदिन्नादाणं च वोसिरे
॥१९॥ छाया - तं च भिक्षुः परिहाय सुव्रतः समितश्चरेत् । मृषावादं च वर्जयेददत्तादानं च व्युत्सृजेत् ।।
अन्वयार्थ - (भिक्खू) साधु (तं च परिण्णाय) पूर्वोक्त बातों को जानकर (सुब्बते) उत्तम व्रतों से युक्त तथा (समिते) समितिओं के सहित रहकर (चरे) विचरे । (मुसावायं च वजिजा) मृषावाद को छोड़ देवे और (अदिनादाणं च वोसिरे) अदत्तादान को त्याग देवे ।
भावार्थ - पूर्वोक्त गाथाओं में जो बातें कही गयी हैं, उन्हें जानकर साधु उत्तम व्रत तथा समिति से युक्त होकर रहे एवं मृषावाद और अदत्तादान को त्याग दे ।
टीका - तदेतद्यत्प्रागुक्तं यथा - वैतरणीनदीवत् दुस्तरा नार्यो यैः परित्यक्तास्ते समाधिस्थाः संसारं तरन्ति, स्त्रीसङ्गिनश्च संसारान्तर्गताः स्वकृतकर्मणा कृत्यन्त इति तदेतत्सर्वं भिक्षणशीलो भिक्षुः ‘परिज्ञाय' हेयोपादेयतया बुद्ध्वा शोभनानि व्रतान्यस्य सुव्रतः, पञ्चभिः समितिभिः समित इत्यनेनोत्तरगुणावेदनं कृतमित्येवंभूतः 'चरेत्' संयमानुष्ठानं
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