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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशकः गाथा २१-२२
उपसर्गाधिकारः ग्रहण किया गया है। इस प्रकार चौदह ही जीवस्थानों में तीनों करण और तीनों योगों से प्राणातिपात से निवृत्त हो जाना चाहिए, यह कहकर एक चरण कम दो श्लोकों के द्वारा प्राणातिपात विरति आदि मूल गुणों का कथन किया गया है । अब इन समस्त मूलगुण और उत्तर गुणों का फल, नाम लेकर बताने के लिए चौथा चरण कहते हैं - कर्मरूपी दाह की शान्ति को शान्ति कहते हैं, वह शान्ति ही निर्वाण अर्थात् मोक्षपद कहा गया है, वह समस्त दुःखों की निवृत्तिस्वरूप है, वह करण का अनुष्ठान करनेवाले साधु को ही मोक्षपद अवश्य प्राप्त होता है ॥२०॥
समस्ताध्ययनार्थोपसंहारार्थमाह -
अब शास्त्रकार समस्त अध्ययन की समाप्ति करने के लिए कहते हैं कि इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेदितं । कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए
॥२१॥ छाया - इमं च धर्ममादाय काश्यपेन प्रवेदितम् । कुर्याद् भिक्षुग्लानस्याग्लानतया समाहितः ||
अन्वयार्थ - (कासवेण पवेदितं) काश्यपगोत्री भगवान महावीर स्वामी के द्वारा कहे हुए (इमं च धर्ममादाय) इस धर्म को स्वीकार करके (समाहिए) समाधियुक्त (भिक्खू) साधु (अगिलाए) अग्लानभाव से (गिलाणस्स) ग्लान साधु की सेवा करे ।
भावार्थ - काश्यपगोत्री भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा कहे हुए इस धर्म को स्वीकार करके, साधु समाधि युक्त रहता हुआ, अग्लान भाव से ग्लान साधु की सेवा करे ।
टीका - 'इमं च धम्ममि' त्यादि, 'इम' मिति पूर्वोक्तं मूलोत्तरगुणरूपं श्रुतचारित्राख्यं वा दुर्गतिधारणात् धर्मम् 'आदाय' आचार्योपदेशेन गृहीत्वा किम्भूतमिति तदेव विशिनष्टि - 'काश्यपेन' श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिना समुत्पन्नदिव्यज्ञानेन भव्यसत्त्वाभ्युद्धरणाभिलाषिणा 'प्रवेदितम्' आख्यातं समधिगम्य 'भिक्षुः' साधुः परीषहोपसर्गेरतर्जितो ग्लानस्यापरस्य साधोर्वेयावृत्त्यं कुर्यात्, कथमिति?, स्वतोऽग्लानतया यथाशक्ति 'समाहित' इति समाधि प्राप्तः, इदमुक्तं भवति - कृतकृत्योऽहमिति मन्यमानो वैयावृत्त्यादिकं कुर्यादिति ॥२१॥ अन्यच्च -
टीकार्थ - पहले कहे हुए मूल और उत्तर गुणरूप अथवा श्रुत, चारित्ररूप, दुर्गति में गिरते प्राणि को धारण करनेवाले धर्म को आचार्य के उपदेश से ग्रहण करके साधु रोगी साधु का वैयावच्च करे । यह धर्म कैसा है सो बताने के लिए इसका विशेषण बतलाते हैं - जिनको दिव्यज्ञान उत्पन्न हुआ था तथा जो भव्य जीवों के उद्धार की इच्छा करते थे, ऐसे श्रीमान् महावीर वर्धमान स्वामी ने इस धर्म को कहा था। इस धर्म को प्राप्त करके परीषह तथा उपसर्गों से न घबराता हुआ साधु दूसरे रोगी साधु की वैयावच्च करे । किस प्रकार करे सो बताते हैं । स्वयं ग्लान न होते हुए यथाशक्ति समाधि को प्राप्त करे । आशय यह है कि मैं कृतकृत्य हुआ यह मानता हुआ, रोगी साधु की वैयावच्च करे ॥२१॥
संखाय पेसलं धम्म, दिट्ठिमं परिनिव्वुडे । उवसग्गे नियामित्ता, आमोक्खाए परिव्वएज्जासि
।।२२।। त्ति बेमि॥ इति उवसग्गपरित्राणामं तईयं अज्झयणं सम्मत्तं ।। (ग्राथाग्रं २५६) छाया - संख्याय पेशलं धर्म दृष्टिमान् परिनिर्वृतः । उपसर्गान् नियम्य मोक्षाय परिव्रजेत् ॥
अन्वयार्थ - (दिट्ठिमं) सम्यग्दृष्टि, (परिनिव्वुडे) शांत पुरुष (पसलं धम्म संखाय) मुक्ति देने में कुशल इस धर्म को अच्छी तरह जानकर (उवसग्गे) उपसर्गों को (नियामित्ता) सहन करके (आमोक्खाए) मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त (परिव्वए) संयम का अनुष्ठान करे ।