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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशकः गाथा १०
उपसर्गाधिकारः ____टीकार्थ - इस गाथा में 'तु' शब्द पूर्वोक्त मत से विशेषता बताने के लिए आया है इसलिए कोई मिथ्यादृष्टि आगे कही जानेवाली नीति का आश्रय लेकर इस प्रकार कहते हैं, यह इसका अर्थ है । अथवा पहले के श्लोक का ही यहां भी सम्बन्ध करना चाहिए । एवं अर्थात् प्राणातिपात आदि में वर्तमान रहनेवाले कोई बौद्धविशेष अथवा नाथ कहकर प्रसिद्ध संघ विशेष में रहनेवाले नीलवस्त्रधारी शैवविशेष, जो उत्तम अनुष्ठान से दूर रहने के कारण पार्श्वस्थ हैं अथवा अवसन्न और कुशील आदि स्वयूथिक जो पार्श्वस्थ हैं, वे स्त्रीपरीषह से हारकर इस प्रकार कहते हैं । वे अनार्य कर्म करने के कारण अनार्य हैं । वे कहते हैं कि -
'प्रिया' अर्थात् मुझको प्रिया का दर्शन होना चाहिए, दूसरे दर्शनों से क्या प्रयोजन है? क्योंकि प्रिया के दर्शन से सरागचित्त के द्वारा भी निर्वाण सुख प्राप्त होता है ।
वे लोग ऐसा क्यों कहते हैं, सो बतलाते हैं । वे स्त्रियों के वशीभूत हैं, इसलिए वे युवती स्त्रियों की आज्ञा में रहते हैं । उनका चित्त राग और द्वेष से नष्ट हो जाने के कारण वे मूर्ख हैं । राग और द्वेष को जीतनेवाले पुरुष को जिन कहते हैं, उन जिन भगवान की कषाय और मोह को शांत करनेवाली जो आज्ञा है, उससे वे विमुख होकर संसार में आसक्त रहते हुए जैन मार्ग से द्वेष करते हैं । उन लोगों ने आगे की गाथाओं द्वारा कही जानेवाली बातें कही हैं ॥९॥
- यदूचुस्तदाह -
- पूर्व गाथा में जिनकी सूचना की गयी है, उन अन्यतीर्थियों ने जो कहा है सो इस गाथा द्वारा बतलाते हैं - जहा गंडं पिलागं वा, परिपीलेज्ज महत्तगं । एवं विन्नवणित्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिआ ?
॥१०॥ छाया - यथा गण्डं पिटकं वा, परिपीडयेत मुहूर्तकम् । एवं वीज्ञापनीस्त्रीषु दोषस्तत्र कुतः स्यात् ॥
अन्वयार्थ - (जहा) जैसे (गंड) फुन्शी (पिलागं वा) अथवा फोडे को (मुहुत्तगं) मुहूर्तभर (परिपीलेज) दबा देना चाहिए इसी तरह (विन्नवणित्थीसु) समागम की प्रार्थना करनेवाली स्त्री के साथ समागम करना चाहिए (तत्थ) इस कार्य में (दोसो) दोष (कओ सिया) कहां से हो सकता है?
भावार्थ - वे अन्यतीर्थी कहते हैं कि - जैसे फुन्सी या फोड़े को दबाकर उसका मवाद निकाल देने से थोड़ी देर के बाद ही सुखी हो जाते हैं। इसी तरह समागम की प्रार्थना करनेवाली स्त्री के साथ समागम करने से थोड़ी देर के बाद ही खेद की शांति हो जाती है, अतः इस कार्य में दोष कैसे हो सकता है?
टीका - यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, 'यथा' येन प्रकारेण कश्चित् गण्डी पुरुषो गण्डं समुत्थितं पिटकं वा तज्जातीयकमेव 'तदाकूतोपशमनार्थ परिपीडय' पूयरुधिरादिकं निर्माल्य मुहूर्तमात्रं सुखिनो भवति, न च दोषेणानुषज्यते, एवमत्रापि 'स्त्रीविज्ञापनायां' युवतिप्रार्थनायां रमणीसम्बन्धे गण्डपरिपीडनकल्पे दोषस्तत्र कुतः स्यात्?, न ह्येतावता क्लेदापगममात्रेण दोषो भवेदिति ॥१०॥
टीकार्थ - 'यथा' शब्द उदाहरण बतलाने के लिए आया है। जैसे कोई फोड़ा फुन्सीवाला पुरुष, अपने शरीर में उत्पन्न फोड़ा या उसी तरह के कई दूसरे व्रण को शांत करने के लिए उसे दबाकर उसके पीव और विकृत रक्त को निकालकर थोड़ी देर के बाद ही सुखी हो जाता है परन्तु फोड़े को दबाने से उसको किसी प्रकार का दोष नहीं होता है, इसी तरह समागम के लिए युवती स्त्री के प्रार्थना करने पर उसके साथ फोड़ा को फोड़ने के समान समागम करने से दोष कैसे हो सकता है? स्त्री समागम द्वारा अपने खेद को विनाश करने मात्र से दोष नहीं हो सकता ॥१०॥
1. आकोपः वि० प० तदाकृतो० प्र. ।
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