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उपसर्गाधिकारः
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशकेः गाथा ७-८ नहीं और इष्ट भी नहीं ॥६॥
अतो व्यपदिश्यते - मा एयं अवमनता, अप्पेणं लुंपहा बहु । एतस्स (उ)अमोक्खाए, अओहारिव्व जूरह
॥७॥ छाया - मेनमवमव्यमाना अल्पेन लुम्पथ बहु । एतस्यत्वमोक्षे अयोहारीव जूरयथ ॥
अन्वयार्थ - (एयं) इस जिनमार्ग को (अवमन्नंता) तिरस्कार करते हुए तुमलोग (अप्पेणं) अल्प अर्थात् तुच्छ विषयसुख के लोभ से (बहु) अति मूल्यवान् मोक्षसुख को (मा लुंपहा) मत बिगाड़ो (एतस्स) सुख से सुख होता है, इस असत्पक्ष को (अमोक्खाए) नहीं छोड़ने पर (अओहारिव) स्वर्ण छोड़कर लोहा लेनेवाले बनिये की तरह (जूरह) पश्चात्ताप करोगे ।
भावार्थ- सुख से ही सुख होता है, इस असत्पक्ष को मानकर जिन शासन का त्याग करनेवाले अन्य दर्शनी को कल्याणार्थ शास्त्रकार उपदेश करते हैं कि तुम इस जिनशासन का तिरस्कार करके तुच्छ विषय सुख के लोभ से अति दुर्लभ मोक्ष सुख को मत बिगाड़ो । सुख से ही सुख होता है इस असत्पक्ष को यदि तुम न छोड़ोगे तो स्वर्ण आदि छोड़कर लोहा लेनेवाले बनिये में जैसे पश्चात्ताप किया । उसी तरह पश्चात्ताप करोगे ।
____टीका - ‘एनम्' आर्य मार्ग जैनेन्द्रप्रवचनं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमोक्षमार्गप्रतिपादकं 'सुखं सुखेनैव विद्यते'. इत्यादिमोहेन मोहिता 'अवमन्यमानाः' परिहरन्तः 'अल्पेन' वैषयिकेण सुखेन मा 'बहु' परमार्थसुखं मोक्षाख्यं 'लुम्पथ' विध्वंसथ, तथाहि - मनोज्ञाऽऽहारादिना कामोद्रेकः, तदुद्रेकाच्च चित्तास्वास्थ्यं न पुनः समाधिरिति, अपि च 'एतस्य' असत्पक्षाभ्युपगमस्य 'अमोक्षे' अपरित्यागे सति 'अयोहारिव्व जूरह'त्ति आत्मानं यूयं कदर्थयथ, केवलं, यथाऽसौ अयसो-लोहस्याऽऽहर्ता अपान्तराले रूप्यादिलाभे सत्यपि दूरमानीतमितिकृत्वा नोज्झितवान्, पश्चात् स्वावस्थानावाप्तावल्पलाभे सति जूरितवान् - पश्चात्तापं कृतवान् एवं भवन्तोऽपि जूरयिष्यन्तीति ॥७॥
टीकार्थ - सुख से ही सुख मिलता है, इस मोह से मोहित होकर, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूपी मोक्ष मार्ग को बताने वाले इस आर्य मार्ग जैनेन्द्र प्रवचन का तिरस्कार करते हुए तुम तुच्छ विषय सुख के लोभ से सर्वोत्कृष्ट परमार्थरूपी मोक्ष सुख को मत बिगाड़ो । क्योंकि मनोज्ञ आहार आदि करने से काम की वृद्धि होती है और काम की वृद्धि होने पर चित्त स्थिर नहीं रह सकता है, अतः मनोज्ञ आहार करने वाले को समाधि नहीं मिल सकती । सुख से ही सुख मिलता है, इस असत्पक्ष को यदि तुम नहीं छोड़ोगे तो स्वर्ण आदि छोड़कर लोहा लेने वाले बनिये की तरह केवल अपने को खराब करोगे। जैसे लोहे का भार लेकर आते हुए किसी बनिये ने मार्ग में रूपा और स्वर्ण मिलने पर भी उस लोहे के भार को छोड़कर उन्हें इसलिए नहीं लिया कि - 'इस लोह को मैं दूर से लाया हूं, इसे क्यों छोडूं" पश्चात् घर जाकर लोह का मूल्य कम पाकर वह पश्चात्ताप करने लगा। इसी तरह आप लोग भी पश्चात्ताप करेंगे ॥७॥
पुनरपि 'सातेन सात' मित्येवंवादिनां शाक्यानां दोषोद्विभावयिषयाह -
सुख से ही सुख मिलता है, इस सिद्धान्त को मानने वाले शाक्य भिक्षुओं के मत में दोष बताने के लिए फिर शास्त्रकार कहते हैं - पाणाइवाते वटुंता, मुसावाद असंजता । अदिनादाणे वस॒ता, मेहुणे य परिग्गहे ॥८॥ ___ छाया - प्राणातिपाते वर्तमानाः मृषावादेऽसंयताः । अदत्तादाने वर्तमानाः मेथुने च परिग्रहे ॥
अन्वयार्थ - (पाणाइवाते) जीवहिंसा (मुसावादे) मिथ्याभाषण (अदिनादाणे) न दी हुई वस्तु लेने (मेहुणे) मैथुन (परिग्गहे) और परिग्रह में (वटुंता) आप लोग वर्तमान रहते हैं, इसलिए (असंजाता) आप लोग संयमी नहीं हैं।
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