Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 274
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशकेः गाथा ११-१२ उपसर्गाधिकारः स्यात्तत्र दोषो यदि काचित्पीडा भवेत्, न चासाविहास्तीति दृष्टान्तेन दर्शयति - वे अन्यतीर्थी कहते हैं कि समागम की प्रार्थना करनेवाली युवती स्त्री के साथ समागम करने से यदि कोई पीड़ा होती तो अवश्य इस कार्य में दोष होता परंतु वह इसमें नहीं होता यही बात दृष्टान्त देकर बतलाते हैं - जहा मंधादए नाम, थिमिअं भुंजती दगं । एवं विन्नवणित्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिआ? ॥११॥ छाया - यथा मंधादनो नाम स्तिमितं भुक्त दकम् । एवं विज्ञापनीस्त्रीषु, दोषस्तत्र कुतः स्यात् ॥ अन्वयार्थ - (जहा) जैसे (मन्धादए नाम) भेड़ (थिमिअं) बिना हिलाये (दगं) जल (मुंजती) पीती है (एवं) इसी तरह (विन्नवणित्थीसु) समागम की प्रार्थना करनेवाली स्त्री के साथ समागम करने से (तत्थ) इसमें (दोसो कओ सिआ) दोष कैसे हो सकता है? भावार्थ - जैसे भेड़ बिना हिलाये जल पीती है, ऐसा करने से किसी जीव का उपघात न होने से उसको दोष नहीं होता है, इसी तरह समागम के लिए प्रार्थना करने वाली युवती स्त्री के साथ समागम करने से किसी को पीड़ा न होने के कारण कोई दोष नहीं होता है । यह वे अन्यतीर्थी कहते हैं । टीका - 'यथे' त्ययमुदाहरणोपन्यासार्थः, 'मन्धादन' इति मेषः नामशब्दः सम्भावनायां यथा मेषः तिमितम् अनालोडयन्नुदकं पिबत्यात्मानं प्रीणयति, न च तथाऽन्येषां किञ्चनोपघातं विधत्ते, एवमत्रापि स्त्रीसम्बन्धे न काचिदन्यस्य पीडा आत्मनश्च प्रीणनम्, अतः कुतस्तत्र दोषः स्यादिति ॥११॥ टीकार्थ - यहां 'यथा' शब्द दृष्टान्त बताने के लिए आया है। मन्धादन नाम भेड़ का है। 'नाम' शब्द संभावना अर्थ में आया है । आशय यह है कि जैसे भेड़ बिना हिलाये जल पीती है और इस प्रकार अपनी तृप्ति कर लेती है। वह इस क्रिया से किसी जीव को पीड़ा नहीं देती है, इसी तरह स्त्री के साथ समागम करने से किसी दूसरे जीव को पीड़ा नहीं होती है और अपनी भी तृप्ति हो जाती है। इसलिए इस कार्य में दोष कहां से हो सकता है? ॥११॥ अस्मिन्नेवानुपघातार्थे दृष्टान्तबहुत्वख्यापनार्थं दृष्टान्तान्तरमाह समागम की प्रार्थना करनेवाली स्त्री के साथ समागम करने में कोई जीवघातरूप दोष नहीं होता इस विषय में दृष्टान्तों की बहुलता बताने के लिए फिर दूसरा दृष्टान्त बतलाते हैं - जहा विहंगमा पिंगा, थिमिअं भुंजती दगं । एवं विनवणित्थिसु, दोसो तत्थ कओ सिआ ! ॥१२॥ छाया - यथा विहङ्गमा पिङ्गा, स्तिमितं भुइक्के दकम् । एवं विज्ञापनीत्रीषु दोषस्तत्र कुतः स्यात् ॥ अन्वयार्थ - (जहा) जैसे (पिंगा) पिङ्ग नामक (विहंगमा) पक्षिणी (थिमिअं) विना हिलाये (दगं) जल (मुंजती) पान करती है (एवं) इसी तरह (वित्रवणित्थिसु) समागम की प्रार्थना करनेवाली स्त्री के साथ समागम करने पर (तत्थ) उसमें (दोसो कओ सिआ) दोष कहां से हो सकता है? भावार्थ - कामासक्त अन्यतीर्थी कहते हैं कि-जैसे पिङ्ग नामक पक्षिणी बिना हिलाये जल पान करती है, इसलिए किसी जीव को उसके जलपान से दुःख नहीं होता है और उसकी तृप्ति भी हो जाती है, इसी तरह समागम की प्रार्थना करनेवाली स्त्री के साथ समागम करने से किसी जीव को दुःख नहीं होता है और अपनी तृप्ति भी हो जाती है, इसलिए इस कार्य में दोष कहां से हो सकता है? ___टीका - 'यथा' येन प्रकारेण विहायसा गच्छतीति विहंगमा - पक्षिणी - पिंगे'ति कपिञ्जला साऽऽकाश एव वर्तमाना: 'तिमितं' निभृतमुदकमापिबति, एवमत्रापि दर्भप्रदानपूर्विकया क्रियया अरक्तद्विष्टस्य पुत्राद्यर्थं स्त्रीसम्बन्धं कुर्वतोऽपि कपिञ्जलाया इव न तस्य दोष इति, साम्प्रतमेतेषां गण्डपीडनतुल्यं स्त्रीपरिभोगं मन्यमानानां तथैडकोदकपानसदृशं परपीडाऽनुत्पादकत्वेन परात्मनोश्च सुखोत्पादकत्वेन किल मैथुनं जायत इत्यध्यवसायिनां तथा कपिञ्जलोदकपानं यथा २३४

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