Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 276
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशकः गाथा १३ उपसर्गाधिकारः इसी तरह कोई मनुष्य किसी लक्ष्मीवान के भण्डार से बहुमूल्य रत्नों को चुराकर पराङ्मुख होकर रहे तो क्या वह चोर समझकर पकडा नहीं जायगा? ॥५३॥ निका यहां कहने का आशय यह है कि यदि कोई मनुष्य शठता या मूर्खता वश किसी का शिर काटकर विष पीकर अथवा रत्न चुराकर मध्यस्थ वृत्ति का आश्रय लेवे तो भी वह निर्दोष नहीं हो सकता. उसी तरह राग होने पर ही उत्पन्न होनेवाला समस्त दोषों का स्थान संसारवर्धक मैथुन सेवन में निर्दोषता किसी भी तरह नहीं हो सकती इस विषय में विद्वानों ने कहा है कि - (प्राणिनाम) शास्त्र में महर्षियों ने मैथुन को प्राणियों का विनाशक बताया है। जैसे नली के भीतर तप्त अग्नि के कण डालने से शीघ्र उसके अंदर की चीजों का नाश हो जाता है, इसी तरह मैथुन सेवन से आत्मिक शक्ति का नाश हो जाता है ॥१॥ मैथुन सेवन अधर्म का मूल है, संसार को बढ़ानेवाला है, अतः पाप की इच्छा न करनेवाले पुरुष को विष युक्त अन्न की तरह इसका त्याग करना चाहिए ॥२॥ नियुक्ति की तीन गाथाओं का यही तात्पर्यार्थ है ॥१२।। साम्प्रतं सूत्रकार उपसंहारव्याजेन गण्डपीडनादिदृष्टान्तवादिनां दोषोद्विभावयिषयाह - अब शास्त्रकार इस प्रकरण को समाप्त करते हुए फोड़े का मवाद निकालने के समान मैथुन को सुखदायी बतानेवाले लोगों के मत को दूषित करने के लिए कहते हैं - एवमेगे उ पासत्था, मिच्छदिट्ठी अणारिया। अज्झोववन्ना कामेहि, पूयणा इव तरुणए ॥१३॥ छाया - एवमेके तु पार्थस्थाः मिथ्यादृष्टयेऽनााः । अध्युपपलाः कामेषु पूतना इव तरुणए ||१३|| अन्वयार्थ - (एव) पूर्वोक्त रूप से मैथुन को निरवद्य माननेवाले (एगे उ) कोई (पासत्था) पार्थस्थ (मिच्छदिट्ठी) मिथ्यादृष्टि हैं (अणारिया) अनार्य है (कामेहिं अज्झोववन्ना) कामभोग में वे अत्यन्त मूर्छित हैं (तरुणए पूयणा इव) जैसे पूतना नामक डाकिनी बालकों पर आसक्त रहती भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार से मैथुन सेवन को निरवद्य बतानेवाले पुरुष पार्श्वस्थ हैं, मिथ्यादृष्टि हैं तथा अनार्य हैं। वे कामभोग में अत्यन्त आसक्त हैं। जैसे पूतना डाकिनी बालकों पर आसक्त रहती है। टीका - ‘एव' मिति गण्डपीडनादिदृष्टान्तबलेन निर्दोष मैथुनमिति मन्यमाना 'एके' स्त्रीपरीषहपराजिताः, सदनुष्ठानात्पार्श्वे तिष्ठन्तीति पार्श्वस्था नाथवादिकमण्डलचारिणः, तुशब्दात् स्वयूथ्या वा, तथा मिथ्या - विपरीता तत्त्वाग्राहिणी दृष्टिः - दर्शनं येषां ते तथा, आरात् - दूरे याता - गताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्याः न आर्या अनार्याः धर्मविरुद्धानुष्ठानात्, त एवंविधा 'अध्युपपन्ना' गृध्नव इच्छामदनरूपेषु कामेषु कामैर्वा करणभूतैः सावद्यानुष्ठानेष्विति, अत्र लौकिकं दृष्टान्तमाह - यथा वा 'पूतना' डाकिनी 'तरुणए' स्तनन्धयेऽध्युपपन्ना, एवं तेऽप्यनार्याः कामेष्विति, यदिवा 'पूयण'त्ति गड्डरिका आत्मीयेऽपत्येऽध्युपपन्ना, एवं तेऽपीति, कथानकं चात्र - यथा किल सर्वपशूनामपत्यानि निरुदके कूपेऽपत्यस्नेहपरीक्षार्थं क्षिप्तानि, तत्र चापरा मातरः स्वकीयस्तनन्धयशब्दाकर्णनेऽपि कूपतटस्था रुदन्त्यस्तिष्ठन्ति, उरभ्री त्वपत्यातिस्नेहेनान्धा अपायमनपेक्ष्य तत्रैवात्मानं क्षिप्तवतीत्यतोऽपरपशुभ्यः स्वापत्येऽध्युपपन्नेति, एवं तेऽपि ॥१३॥ टीकार्थ - फोड़े को फोड़कर उसका मर्ज बाहर निकालने के समान मैथुन सेवन को निरवद्य माननेवाले अन्यतीर्थी स्त्रीपरीषह से जीते जा चुके हैं। वे शुभ अनुष्ठान से अलग रहते हैं। वे अपने को नाथ कहनेवाले मण्डल में विचरते हैं तथा 'तु' शब्द से कोई स्वयूथिक भी इस सिद्धान्त के अनुयायी हैं। इनकी दृष्टि वस्तुस्वरूप २३६

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