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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशः गाथा ६
उपसर्गाधिकारः
युक्ति भी इसी तरह की है क्योंकि कारण के अनुरूप ही कार्य होता है जैसे कि शालि के बीज से शालि का ही अंकुर उत्पन्न होता है, यव का नहीं, इसी तरह इस लोक के सुख से परलोक में मुक्ति सुख की प्राप्ति होती है परंतु लोच आदि दुःख से मुक्ति नहीं मिलती है । तथा आगम भी यही कहता है जैसे कि
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(मणुन्नं) अर्थात् मुनि को मनोज्ञ आहार खाकर मनोज्ञ शय्या और आसन पर मनोज्ञ घर में सुख भोग करना
चाहिए ।
तथा (मृद्वी) साधु को मुलायम शय्या पर सोना चाहिए और प्रातः उठकर दुग्धादि पदार्थ पीना चाहिए एवं दोपहर के समय भात खाना चाहिए तथा सायंकाल में शर्बत पीना चाहिए, एवं अर्द्ध रात्रि के समय द्राक्ष और मिश्रि खानी चाहिए । इस प्रकार कार्य करने से अंत में मोक्ष होना शाक्यपुत्र ने देखा है ।
मनोज्ञ आहार और विहार आदि करने से चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न होती है और चित्त प्रसन्न होने पर एकाग्रता उत्पन्न होती है और एकाग्रता से मुक्ति की प्राप्ति होती है, इसलिए यह सिद्ध हुआ कि सुख से ही सुख की प्राप्ति होती है परंतु लोच आदि कायकष्ट से कभी भी मुक्ति नहीं होती। इस प्रकार की प्ररूपणा करने वाले जो शाक्य आदि इस मोक्ष विचार के प्रकरण में समस्त हेय धर्मों से दूर रहनेवाला जैनेन्द्रशासन प्रतिपादित परम शान्ति को उत्पन्न करनेवाला सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र स्वरूप मोक्ष मार्ग को छोड़ देते हैं । वे मूर्ख हैं, वे सदा संसार में भ्रमण करते रहते हैं क्योंकि उन्होंने जो कहा है कि कारण के अनुरूप ही कार्य होता है, यह एकान्त नहीं है क्योंकि सींग से शर नाम की वनस्पति की उत्पत्ति होती है और गोबर से बिच्छु की उत्पत्ति होती है एवं गाय और भेड के बालों से दूब की उत्पत्ति होती है। तथा मनोज्ञ आहार को जो सुख का कारण कहा है, यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि मनोज्ञ आहार से विशूचिका (हैजा ) भी उत्पन्न होती है इसलिए मनोज्ञ आहार एकान्त रूप से सुख का कारण नहीं है । वस्तुतः यह विषयजनित सुख दुःख के प्रतीकार का हेतु होने के कारण सुख का आभासमात्र है, वह सुख है ही नहीं कहा भी है
(दुःखात्मकेषु) दुःख स्वरूप विषयों को सुख मानना और सुख स्वरूप नियमों को दुःख समझना इस प्रकार उलट है, जैसे खुदे हुए अक्षरों की पंक्ति उलट दीखती है । जैसे खुदे हुए अक्षरों की पंक्ति को उलटकर रखने से अक्षरों का रूप सीधा दीखता है, इसी तरह विषय भोग को दुःख और नियम आदि को सुख समझने से उनका रूप ठीक प्रतीत होता है ।
अतः दुःखस्वरूप विषय भोग परमानन्द स्वरूप एकान्तिक और आत्यन्तिक मोक्षसुख का कारण कैसे हो सकता है ? तथा केश का लुंचन, पृथिवी पर शयन, भिक्षा मांगना, दूसरे का अपमान सहन, भूख प्यास तथा दंशमशक का कष्ट, इनको जो आपने दुःख का कारण बताया है, वे भी अत्यन्त कमजोर हृदयवाले जो पुरुष परमार्थदर्शी नहीं है, उनके लिए ही दुःख के कारण हैं परन्तु जो महापुरुष परमार्थदर्शी और परमार्थ की चिन्ता में तत्पर तथा अपने स्वार्थ के साधन में प्रवृत्त हैं, उनके लिए ये सब दुःख नहीं है, किन्तु उनकी महान् शक्ति के प्रभाव से ये सब सुख के साधन स्वरूप हैं । कहा भी है
( तण संथार) अर्थात् राग, मद और मोह रहित मुनि, तृण की शय्या पर सोया हुआ भी जिस परमानन्दरूप मुक्ति सुख का अनुभव करता है, उसे चक्रवर्ती भी कहां से पा सकता है ?
तथा (दुःखम् ) अर्थात् दुःख होने से बड़े लोग दुःखी नहीं होते किन्तु यह जानकर वे सुखी होते हैं कि दुःख होने से पाप का नाश होता है और क्षमा से वैर की शान्ति होती है । एवं शरीर की मलिनता, वैराग्य का मार्ग है और वृद्धता वैराग्य का कारण है तथा समस्त वस्तुओं का त्यागरूप महान् उत्सव के लिए मरण होता है, जन्म स्वजनों की प्रीति के लिए होता है, अतः यह जगत् संपत्ति से भरा हुआ है, इसमें दुःख का स्थान ही कहां है?
तथा एकान्त रूप से सुख से ही सुख की उत्पत्ति मानने पर विचित्र संसार का होना नहीं बन सकता क्योंकि स्वर्ग में निवास करने वाले जो सदा सुख का ही भोग किया करते हैं, उनकी उत्पत्ति सुखभोग के कारण फिर स्वर्ग में ही होगी तथा नरक में रहनेवाले जीवों की दुःखभोग के कारण फिर नरक में ही उत्पत्ति होगी । इस प्रकार भिन्न-भिन्न गतिओं में जाने के कारण जो जगत् की विचित्रता होती है, वह नहीं हो सकेगी परंतु यह शास्त्रसम्मत
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