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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशकेः गाथा ६
उपसर्गाधिकारः परिणामभावलिङ्गमन्तरेण शीतोदकबीजाद्युपभोगेन जीवोपमर्दप्रायेण कर्मक्षयोऽवाप्यते, विषीदने दृष्टान्तमाह- वहनं वाहो - भारोद्वहनं तेन छिन्नाः - कर्षितास्त्रुटिता रासभा इव विषीदन्ति, यथा - रासभा गमनपथ एव प्रोज्झितभाराः निपतन्ति, एवं तेऽपि प्रोझ्य संयमभारं शीतलविहारिणो भवन्ति, दृष्टान्तान्तरमाह - यथा 'पृष्ठसर्पिणो' भग्नगतयोऽग्न्यादिसम्भ्रमे सत्युभ्रान्तनयनाः समाकुलाः प्रनष्टजनस्य 'पृष्ठतः' पश्चात्परिसर्पन्ति नाग्रगामिनो भवन्ति, अपि तु तत्रैवाग्न्यादिसम्भ्रमे विनश्यन्ति, एवं तेऽपि शीतलविहारिणो मोक्षं प्रति प्रवृत्ता अपि तु न मोक्षगतयो भवन्ति, अपि तु तस्मिन्नेव संसारे अनन्तमपि कालं यावदासत इति ॥५।।
टीकार्थ - बुरी शिक्षा देनेवाली मिथ्या दृष्टियों की पूर्वोक्त प्ररूपणा रूप उपसर्ग के उदय होने पर अज्ञानी जीव अनेक उपायों से मोक्ष को साध्य मानकर संयम के अनुष्ठान करने में दुःख का अनुभव करते हैं । वे मूर्ख यह नहीं जानते कि जिन लोगों को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी, उनको किसी कारण वश जाति स्मरण आदि ज्ञान के उदय होने से सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र की प्राप्ति होने के कारण से ही हुई थी, जैसे वल्कचीरी आदि को मुक्ति प्राप्त हुई थी। सर्व-विरति परिणाम तथा भावलिङ्ग के बिना जीवों को विनाश करने वाला शीतल जल का पान
और बीज आदि के उपभोग से कभी भी कर्मक्षय रूप मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता । मिथ्यादृष्टियों के उपदेश से संयम पालन में दुःख अनुभव करनेवाले जीवों के विषय में शास्त्रकार दृष्टान्त बतलाते हैं - 'वाह' नाम भार का है, उसके ढोने से दुर्बल गदहा जैसे दुःख का अनुभव करता है, उसी तरह उक्त साधु संयम पालन करने में कष्ट का अनुभव करता है । जैसे वह गदहा मार्ग में ही भार को गिराकर स्वयं गिरजाता है, उसी तरह उक्त साधु भी संयम रूपी भार को छोड़कर शिथिलविहारी हो जाता है । इस विषय में शास्त्रकार दूसरा दृष्टान्त बतलाते हैं - जैसे अग्नि आदि का भय उपस्थित होने पर लंगडा मनुष्य घबराकर तथा चंचल नेत्र होकर अग्नि के भय से भागनेवाले लोगों के पीछे-पीछे भागता है, परंतु वह आगे तक नहीं जा सकता बल्कि उसी जगह अग्नि आदि के द्वारा नाश को प्राप्त हो जाता है । इसी तरह शिथिलविहारी पुरुष मोक्ष के लिए प्रवृत्त होकर भी मोक्ष तक पहुंच नहीं पाता बल्कि अनन्त काल तक इसी संसार में भ्रमण करता रहता है ॥५।।
मतान्तरं निराकर्तुं पूर्वपक्षयितुमाह -
अब शास्त्रकार दूसरे मत का खंडन करने के लिए पूर्वपक्ष करते हुए कहते हैं - इहमेगे उ भासंति, सातं सातेण विज्जती । जे तत्थ आरियं मग्गं, परमं च समाहिए (यं)
॥६॥ छाया - इहेके तु भाषन्ते सातं सातेन विद्यते । ये तत्र आर्य मार्ग परमं च समाथिकम् ॥
अन्वयार्थ - (इह) इस मोक्ष प्राप्ति के विषय में (एगे) कोई (भासंति) कहते हैं कि (सात) सुख (सातेन) सुख से ही (विजती) प्राप्त होता है । (तत्थ) परन्तु इस मोक्ष के विषय में (आरियं) समस्त हेय धर्मों से दूर रहनेवाला तीर्थङ्कप्रतिपादित जो मोक्ष मार्ग है (परमं समाहिए) जो परम शान्ति को देनेवाला ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप है, उसे (जे) जो लोग छोड़ते हैं, वे मूर्ख हैं।
भावार्थ - कोई मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि सुख से ही सुख की प्रासि होती है, परंतु वे मूर्ख हैं क्योंकि परम शान्ति को देनेवाले तीर्थक्करप्रतिपादित जो ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप मोक्षमार्ग है, उसे जो छोड़ते हैं, वे मूर्ख हैं ।
टीका - 'इहे ति मोक्षगमनविचारप्रस्तावे 'एके' शाक्यादयः स्वयूथ्या वा लोचादिनोपतप्ताः, तुशब्दः पूर्वस्मात् शीतोदकादिपरिभोगाद्विशेषमाह, 'भाषन्ते' ब्रुवते, मन्यन्ते वा क्वचित्पाठः, किं तदित्याह - 'सातं' सुखं 'सातेन' सुखेनैव 'विद्यते' भवतीति, तथा च वक्तारो भवन्ति -
सर्वाणि सत्त्वानि सुखे रतानि, सर्वाणि दुःखाच्च समुद्विजन्ते । तस्मात्सुखार्थी सुखमेव दद्यात्, सुखप्रदाता लभते सुखानि ।।१।।
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