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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने तृतीयोदेशके: गाथा १८
उपसर्गाधिकारः
अन्यच्च किमनया बहिरङ्गया युक्त्याऽनुमानादिकयाऽत्र धर्मपरीक्षणे विधेये कर्तव्यमस्ति यतः प्रत्यक्ष एव बहुजनसम्मतत्वेन राजाद्याश्रयणाच्चायमेवास्मदभिप्रेतो धर्मः श्रेयान्नापर इत्येवं विवदन्ते तेषामिदमुत्तरम् न ह्यत्र ज्ञानादिसाररहितेन बहुनाऽपि प्रयोजनमस्तीति, उक्तं च
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1 एरण्डकgरासी जहा य गोसीसचन्दनपलस्स । मोल्ले न होज्ज सरिसो कित्तियमेत्तो गणितो ॥१॥ तहवि गणणातिरेगो जह रासी सो न चंदनसरिच्छो । तह निव्विण्णाणमहाजणोवि सोज्झे विसंवयति ॥२॥ एक सचक्खुगो जह अंधलयाणं सएहिं बहुएहिं । होइ वरं दट्ठव्वो णहु ते बहुगा अपेच्छंता ||३|| 4 एवं बहुगावि मूढा ण पमाणं जे गईं ण याणन्ति । संसारगमणगुविलं णिउणस्स य बंधमोक्खस्स ||४|| इत्यादि ॥ १७ ॥ अपि च
टीकार्थ वे गोशालक मतावलम्बी तथा दिगम्बर सम्प्रदायवाले समस्त अर्थानुसारिणी युक्तियों के द्वारा अर्थात्
प्रमाण स्वरूप हेतु और दृष्टान्तों के द्वारा जब अपने पक्ष में अपने को स्थापन करने में समर्थ नहीं होते हैं, तब वाद को छोड़कर अर्थात् सम्यग्हेतु और दृष्टान्तों के द्वारा जो परस्पर जल्परूप वाद होता है, उसे त्यागकर अपने पक्ष स्थापन की धृष्टता करते है, अर्थात् वे अन्यतीर्थी वाद को छोड़कर फिर धृष्टता करते हुए यह कहते हैं जैसे
कि
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(पुराणं) अर्थात् पुराण, मनुप्रणीत धर्मशास्त्र, साङ्गवेद और चिकित्साशास्त्र ये चार ईश्वरीय आज्ञा से सिद्ध हैं। इसलिए तर्क के द्वारा इनका खण्डन नहीं करना चाहिए
तथा धर्मपरीक्षा के विषय में युक्ति और अनुमान आदि बहिरङ्ग साधनों की क्या आवश्यकता है? क्योंकि बहुत लोगों से स्वीकृत होने तथा राजा महाराजा आदि के मान्य होने से प्रत्यक्ष यह हमारा धर्म ही श्रेष्ठ है । दूसरा धर्म नहीं । इस प्रकार वे अन्यतीर्थी विवाद करते हैं । उनको इस प्रकार उत्तर देना चाहिए ।
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(एरण्डकट्ठरासी) अर्थात् एरंडकाष्ठ की राशि चाहे कितनी ही बड़ी हो परंतु वह कीमत में एक पल गोशीर्ष चन्दन के तुल्य नहीं होती । जैसे एरंडकाष्ठ की राशि गणना में अधिक होने पर भी अल्प चन्दन के सदृश नहीं है । इसी तरह विज्ञान रहित पुरुषों की राशि भी महत्व में थोड़े भी विज्ञानवालों के बराबर नहीं है। जैसे नेत्रवाला एक पुरुष भी सैकडों अंध पुरुषों से श्रेष्ठ होता है, इसी तरह ज्ञानी पुरुष एक भी सैकडों अज्ञानियों से श्रेष्ठ होता है । बंध, मोक्ष तथा संसार की गति को जो नहीं जानते हैं । वे मूर्ख मनुष्य बहुत हो तो भी धर्म के विषय में प्रमाण माने नहीं जा सकते ||१७|
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रागदोसाभिभूयप्पा, मिच्छत्तेण अभिदुता ।
आउस्से सरणं जंति, टंकणा इव पव्वयं
।।१८।।
छाया - रागद्वेषाभिभूतात्मानः, मिथ्यात्वेनाभिद्रुताः । आक्रोशान् शरणं यान्ति, टङ्कणा इव पर्वतम् ॥
अन्वयार्थ - (रागदोसाभिभूयप्पा ) राग और द्वेष से जिनकी आत्मा दबी हुई है, ऐसे तथा (मिच्छत्तेण अभिदुता) मिथ्यात्व से भरे हुए अन्यतीर्थों (आउस्से सरणं जंति) शास्त्रार्थ से हार जाने पर गाली आदि का आश्रय लेते हैं जैसे ( टंकणा) पहाड़ में रहनेवाली म्लेच्छ जाति, युद्ध में हार जाने पर (पव्वयं) पहाड़ का आश्रय लेती है ।
भावार्थ - राग और द्वेष से जिनका हृदय दबा हुआ है तथा जो मिथ्यात्व से भरे हुए हैं, ऐसे अन्यतीर्थी जब शास्त्रार्थ में परास्त हो जाते हैं, तब गाली, गलौच और मारपीट का आश्रय लेते हैं, जैसे पहाड़ पर रहनेवाली कोई म्लेच्छ
1. एरण्डकाष्ठराशिर्यथा च गोशीर्षचन्दनपलस्य । मूल्येन न भवेत् सदृशः कियन्मात्रेो गण्यमानः ||१|
2. तथापि गणनातिरेको यथा राशिः स न चन्दनसदृशः । तथा निर्विज्ञानमहाजनोऽपि मूल्ये विसंवदते ॥२॥ 3. एकः सचक्षुष्को यथा अन्धानां शतैर्बहुभिर्भवति वरं द्रष्टव्यो नैव बहुका अप्रेक्षमाणाः ||३||
4. एवं बहुका अपि मूढा न प्रमाणं ये गतिं न जानन्ति । संसारगमनवक्रां निपुणयोर्बन्धमोक्षयोच ||४||
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