Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 243
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा १५-१६ उपसर्गाधिकारः संसार में भ्रमण कराता है, उसे 'आवर्त' कहते हैं। वह आवर्त आगे चलकर कहा जाने वाला है । उस आवर्त को सब लोग जानते हैं, इसलिए वह प्रत्यक्ष और समीपवर्ती है । इस कारण यहां इदम् शब्द से उसका कथन किया गया है। आवर्त, दो प्रकार का होता है । द्रव्यावर्त और भावावर्त । नदी आदि का भंवर 'द्रव्यावर्त' है और उत्कट महामोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न विषयभोग की इच्छा सिद्ध करनेवाली संपत्तिविशेष की प्रार्थना 'भावावर्त' है। उत्पन्नदिव्यज्ञानधारी भगवान महावीरस्वामी ने आवर्त का स्वरूप बताया है, इसलिए जो विवेकी पुरुष इन आवों का फल जानते हैं, वे तत्त्वदर्शी जीव इनके उपस्थित होने पर प्रमाद नहीं करते हैं किन्तु इनसे दूर हट जाते हैं. परंत जो अज्ञानी हैं। वे अज्ञानवश इनमें आसक्त होकर महादःख भोगते हैं ॥१४॥ तानेवावर्तान् दर्शयितुमाह - अब उन्हीं आवर्तों को दिखाने के लिए सूत्रकार कहते हैं - रायाणो रायऽमच्चा य, माहणा अदुव खत्तिया । निमंतयंति भोगेहिं, भिक्खूयं साहुजीविणं ॥१५॥ छाया - राजानो रानामात्याच ब्राह्मणा अथवा क्षत्रियाः । निमन्वयन्ति भोगेभिक्षुकं साधुजीविनम् ॥ अन्वयार्थ - (रायाणो) राजा महाराजा (रायमच्चा) और राजमंत्री (माहणा) ब्राह्मण (अदुव) अथवा (खत्तिया) क्षत्रिय (साहुजीविणं) उत्तम आचार से जीवन निर्वाह करनेवाले (भिक्खूयं) साधु को (भोगेहिं) भोग भोगने के लिए (निमंतयंति) निमन्त्रित करते हैं। ___ भावार्थ - राजा महाराजा और राजमन्त्री तथा ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय, उत्तम आचार से जीवन निर्वाह करने वाले लोग साधु को भोग भोगने के लिए आमन्त्रित करते हैं। टीका - 'राजानः' चक्रवर्त्यादयो 'राजामात्याश्च' मन्त्रिपुरोहितप्रभृतयः तथा ब्राह्मणा अथवा 'क्षत्रिया' इक्ष्वाकुवंशजप्रभृतयः, एते सर्वेऽपि 'भौगैः' शब्दादिभिर्विषयैः 'निमन्त्रयन्ति' भोगोपभोगं प्रत्यभ्युपगमं कारयन्ति, कम्? भिक्षुकं 'साधुजीविणमिति साध्वाचारेण जीवितुं शीलमस्येति (साधुजीवी तं) साधुजीविनमिति, यथा ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिना नानाविधैर्भोगैश्चित्रसाधुरुपनिमन्त्रित इति । एवमन्येऽपि केनचित्सम्बन्धेन व्यवस्थिता यौवनरूपादिगुणोपेतं साधुं विषयोद्देशेनोपनिमन्त्रयेयुरिति ॥१५॥ टीकार्थ - राजा अर्थात् चक्रवर्ती आदि तथा राजामात्य यानी मन्त्री और पुरोहित आदि एवं ब्राह्मण अथवा इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न क्षत्रिय आदि, ये सभी, शब्दादि विषयों के सेवन के लिए आमन्त्रित करते हैं । वे भोग सेवन के लिए स्वीकार कराते हैं। किसको? पवित्र आचार से जीवन व्यतीत करनेवाले साधु को । जैसे ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने चित्रनामक साधु को विविध प्रकार के विषयों को भोगने के लिए आमन्त्रित किया था। इसी तरह दूसरे भी रूप यौवनसंपन्न साधु को किसी कारण वश विषय भोगने के लिए निमन्त्रित कर सकते हैं ॥१५।। एतदेव दर्शयितुमाह - यही दिखाने के लिए सूत्रकार कहते हैं । हत्थऽस्सरहजाणेहि, विहारगमणेहि य । भुंज भोगे इमे सग्घे, महरिसी ! पूजयामु तं ॥१६॥ छाया - हस्त्यश्वरथयानेर्विहारगमनेश्च । भुइक्ष्व भोगानिमान् श्लाघ्यान् महर्षे पूजयामस्त्वाम् ॥ अन्वयार्थ - (महरिसी) हे महर्षे! (तं) हम तुम्हारी (पूजयामु) पूजा करते हैं (इमे) इन (सग्घे) उत्तम (भोगे) भोगों को (मुंज) भोगो। २०३

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