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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने तृतीयोद्देशकेः गाथा १
उपसर्गाधिकारः
॥ अथ तृतीयोपसर्गाध्ययनस्य तृतीयोद्देशकः प्रारभ्यते ॥
उपसर्गपरिज्ञायां उक्तो द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः -
उपसर्गपरिज्ञाध्ययन का दूसरा उद्देशक कहा जा चुका । अब तीसरा उद्देशक आरंभ किया जाता है। इसका पूर्व उद्देशकों के साथ यह सम्बन्ध है ।
इहानन्तरोद्देशकाभ्यामुपसर्गा अनुकूलप्रतिकूलभेदेनाभिहिताः, तैश्चाध्यात्मविषीदनं भवतीति तदनेन प्रतिपाद्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् -
___ पूर्वोक्त दो उद्देशकों में अनुकूल और प्रतिकूल भेदवाले दो प्रकार के उपसर्ग बताये गये हैं। उन उपसर्गों के द्वारा ज्ञान गर्भित वैराग्य का विनाश होता है । यह इस तीसरे उद्देशक में बताया जाता है। यही इस तीसरे उद्देशक के अवतार का कारण है । इस सम्बन्ध से अवतीर्ण इस तीसरे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है । जहा संगामकालम्मि, पिट्ठतो भीरु वेहइ । वलयं गहणं णमं, को जाणइ पराजयं?
॥१॥ छाया - यथा सङ्ग्रामकाले पृष्ठतो भीरुः प्रेक्षते । वलयं गहनमाच्छादकं को जानाति पराजयम् ॥
अन्वयार्थ - (जहा) जैसे (संगामकालम्मि) युद्ध के समय (भीरु) कायर पुरुष (पिट्ठतो) पीछे की ओर (वलयं) गड्डा (गहणं) गहन स्थान (णूम) छिपने का स्थान (वहइ) देखता है । वह सोचता है कि (पराजय) किसका पराजय होगा (को जाणइ) यह कौन जानता है?
भावार्थ - जैसे कायर पुरुष, युद्ध के समय पहले आत्मरक्षा, देहरक्षा के लिए गड्डा, गहन और छिपने का स्थान देखता है। वह सोचता है कि युद्ध में किसका पराजय होगा. यह कौन जानता है? अतः संकट अ आत्मरक्षा हो सकती है, इसलिए पहले छिपने के स्थान देख लेने चाहिए।
___टीका - दृष्टान्तेन हि मन्दमतीनां सुखेनैवार्थावगतिर्भवतीत्यत आदावेव दृष्टान्तमाह यथा कश्चिद् 'भीरुः' अकृतकरणः 'सङ्ग्रामकाले' परानीकयुद्धावसरे समुपस्थिते 'पृष्ठतः प्रेक्षते' आदावेवापत्प्रतीकारहेतुभूतं दुर्गादिकं स्थानमवलोकयति । तदेव दर्शयति - 'वलय'मिति यत्रोदकं वलयाकारेण व्यवस्थितम् उदकरहिता वा गर्ता दुःखनिर्गमप्रवेशा, तथा 'गहनं' धवादिवृक्षैः 'कटिसंस्थानीयं 'णूमति प्रच्छन्नं गिरिगुहादिकं, किमित्यसावेवमवलोकयति?, यत एवं मन्यते- तत्रैवम्भूते तुमुलसङ्ग्रामे सुभटसङ्कुले को जानाति कस्यात्र पराजयो भविष्यतीति?, यतो दैवायत्ताः कार्यसिद्धयः, स्तोकैरपि बहवो जीयन्त इति ॥१॥ किञ्च -
टीकार्थ - दृष्टान्त से मन्दमति पुरुषों को सुखपूर्वक पदार्थ का ज्ञान होता है । इसलिए सूत्रकार पहले दृष्टान्त का ही कथन करते हैं। जैसे युद्धविद्या में अनिपुण कायर पुरुष, शत्रु सेना के साथ युद्ध के अवसर में पहले ही शत्रुओं से बचने के लिए किसी दुर्गम स्थान को देखता है। सूत्रकार उन्हीं दुर्गम स्थानों को दिखाते हैं 'वलय' अर्थात् जहां मण्डलाकार पानी विद्यमान होता है वह स्थान, अथवा जलरहित गड्ढा आदि स्थान, जहां से निकलना
और प्रवेश करना कठिन है, अथवा जो स्थान धव आदि वृक्षों से मनुष्य के कमर तक ढंका हुआ है तथा छिपे हुए पर्वत की गुफा आदि स्थान, इन स्थानों को वह पहले देखता है। वह क्यों इन स्थानों को देखता है? इसका 1. कष्टिसं. प्र.
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