Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 249
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने तृतीयोद्देशके: गाथा २-३ उपसर्गाधिकारः समाधान यह है कि वह समझता है कि इस भयंकर संग्राम में बहुत से बड़े-बड़े वीर योद्धा एकत्रित हुए हैं । इसलिए यह कौन जान सकता है कि इसमें किसका पराजय होगा? क्योंकि थोडे पुरुष भी बहुत पुरुषों को जीत लेते हैं, इसलिए कार्यसिद्धि दैवाधीन होती है, यह निश्चित है ॥१॥ मुहुत्ताणं मुहुत्तस्स, मुहुत्तो होइ तारिसी । पराजियाऽवसप्पामो, इति भीरू उवेहई छाया - मुहूर्त्ताणां मुहूर्तस्य मुहूर्तो भवति तादृशः । पराजिता अवसर्पाम इति भीरुरुपेक्षते ॥ अन्वयार्थ - ( मुहुत्ताणं) बहुत मुहूत्तों का ( मुहुत्तस्स) अथवा एक मुहूर्त का (तारिसो) कोई ऐसा ( मुहुत्तो होइ) अवसर होता है (जिसमें जय या पराजय संभव है) (पराजिया) अतः शत्रु से हारे हुए हम (अवसप्पामो) जहा छिप सकें (इति) ऐसे स्थान को ( भीरू ) कायर पुरुष ( उवेहई ) खोजता है। भावार्थ - बहुत मुहूर्तों का अथवा एक ही मुहूर्त का कोई ऐसा अवसर विशेष होता है जिसमें जय या पराजय की संभावना रहती है इसलिए 'हम पराजित होकर जहां छिप सकें' ऐसे स्थान को कायर पुरुष पहले ही खोजता है। टीका - मुहूर्त्तानामेकस्य वा मुहूर्तस्यापरो 'मुहूर्तः' कालविशेषलक्षणोऽवसरस्तादृग् भवति यत्र जयः पराजयो वा सम्भाव्यते, तत्रैवं व्यवस्थिते पराजिता वयम् 'अवसर्पामो' नश्याम इत्येतदपि सम्भाव्यते अस्मद्विधानमिति भीरुः पृष्ठत आपत्प्रतीकारार्थं शरणमुपेक्षते ॥२॥ ॥२॥ टीकार्थ बहुत से मुहूर्त अथवा एक ही मुहूर्त का कोई ऐसा कालविशेष होता है। जिसमें जय और पराजय की संभावना रहती है। ऐसी दशा में पराजित होकर किसी गुप्त स्थान में छिपना पड़े यह भी संभव है। यह विचारकर कायर पुरुष पहले ही विपत्ति के प्रतीकार के लिए रक्षा के स्थान का अन्वेषण करता है अर्थात् ढूंढता है ||२|| - इति श्लोकद्वयेन दृष्टान्तं प्रदर्श्य दान्तिकमाह इन दो श्लोकों से दृष्टान्त दिखाकर सूत्रकार अब दाष्टान्त दिखाने के लिए कहते हैं । एवं तु समणा एगे, अबलं नच्चाण अप्पगं । अणागयं भयं दिस्स, 2 अविकप्पंतिमं सुयं ॥३॥ छाया एवं तु श्रमणा एक अबलं ज्ञात्वाऽऽत्मानम् । अनागतं भयं दृष्ट्वाऽवकल्पयन्तीदं श्रुतम् ॥ अन्वयार्थ - ( एवं तु) इस प्रकार ( एगे समणा) कोई श्रमण (अप्पगं ) अपने को (अबलं) जीवनपर्यन्त संयम पालन करने में असमर्थ (दिस्स) देखकर (अणागयं) तथा भविष्यत् काल के ( भयं दिस्स) भय को देखकर (इमं सुयं) व्याकरण तथा ज्योतिष आदि को (अविकप्पंति) अपने निर्वाह का साधन बनाते हैं । - भावार्थ - इसी प्रकार कोई श्रमण जीवनभर संयम पालन करने में अपने को समर्थ नहीं देखकर भविष्यत् काल में होनेवाले दुःखों से बचने के लिए व्याकरण और ज्योतिष आदि शास्त्रों को अपना रक्षक मानते हैं । - टीका 'एवम्' इति यथा सङ्ग्रामं प्रवेष्टुमिच्छुः पृष्ठतोऽवलोकयति - किमत्र मम पराभग्नस्य वलयादिकं शरणं त्राणाय स्यादिति ?, एवमेव 'श्रमणाः ' प्रव्रजिता 'एके' केचनादृढमतयोऽल्पसत्त्वा आत्मानम् 'अबलं' यावज्जीवं संयमभारवहनाक्षमं ज्ञात्वा अनागतमेव भयं 'दृष्ट्वा' उत्प्रेक्ष्य तद्यथा निष्किञ्चनोऽहं किं मम वृद्धावस्थायां ग्लानाद्यवस्थायां दुर्भिक्षे वा त्राणाय स्यादित्येवमाजीविकाभयमुत्प्रेक्ष्य 'अवकल्पयन्ति' परिकल्पयन्ति मन्यन्ते - इदं व्याकरणं गणितं ज्योतिष्कं वैद्यकं होराशास्त्रं मन्त्रादिकं वा श्रुतमधीतं ममावमादौ त्राणाय स्यादिति ||३|| 1. युद्धविषयत्वात् मायोपेक्षेन्द्रजालानि क्षुद्रोपाया इमे त्रय इति श्री हेमचन्द्रवचनादत्र क्षुद्रोपायपर उपेक्षिः । 2. अवकप्पन्तीति टीका । २०९

Loading...

Page Navigation
1 ... 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334