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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने तृतीयोद्देशकेः गाथा १४
उपसर्गाधिकारः से आप लोग कर्मबन्ध रूप तीव्र अभिताप से लिप्त तथा सद्विवेक से हीन हैं, क्योंकि आप लोग भिक्षा पात्र को नहीं रखकर दूसरे के घरों में भोजन करते हुए उद्दिष्ट आहार का सेवन करते हैं । एवं उत्तम साधुओं के साथ द्वेष करने के कारण आप लोग शुभ अध्यवसाय से वर्जित हैं । अब शास्त्रकार दृष्टान्त के द्वारा उन अन्यतीर्थियों के दोष बतलाने के लिए फिर से कहते हैं - जैसे घाव को अत्यन्त खुजलाना अच्छा नहीं है क्योंकि अत्यन्त खुजलाने से घाव में विकार उत्पन्न होता है, उसी तरह आप लोग भी ऐसे सद्विवेक से रहित हैं कि हम लोग परिग्रह वर्जित होने के कारण निष्किञ्चन हैं, यह कहते हुए छ: काय के जीवों की रक्षा के साधन स्वरूप संयम के उपकरण जो भिक्षा पात्र आदि हैं, उनको भी त्याग देते हैं । इस प्रकार संयम के उपकरणों के त्याग करने से अशुद्ध आहार का उपभोग अवश्यं भावी है । अतः द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा न करके घाव में अत्यन्त खाज करने के समान संयम के उपकरणों को भी त्याग देना कल्याण के लिए नहीं हैं ॥१३॥
तत्तेण अणुसिट्ठा ते, अपडिन्नेण जाणया । ण एस णियए मग्गे, असमिक्खा वती किती
॥१४॥ छाया - तत्त्वेनानुशिष्टास्तेऽप्रतिज्ञेन जानता । न एष नियतो मार्गोऽसमीक्ष्य वाक्कृतिः ।
अन्वयार्थ - (अपडिन्नेण) जिसको मिथ्या अर्थ बताने की प्रतिज्ञा नहीं है, उसे अप्रतिज्ञ कहते हैं (जाणया) तथा जो ग्रहण करने योग्य और त्याग करने योग्य पदार्थों को जानता है, वह साधु पुरुष (ते) उन अन्यदर्शनवालों को (तत्तेण अणुसिट्ठा) सत्य अर्थ की शिक्षा देता है कि (एस मग्गे) आप लोगों ने जिसे स्वीकार किया है वह मार्ग (ण णियए) युक्तिसङ्गत नहीं है । (वती) तथा आपने जो सम्यग्दृष्टि साधुओं के लिए आक्षेप वचन कहा है, वह भी (असमिक्खा) बिना विचारे कहा है (किती) एवं आपलोग जो कार्य करते हैं वह भी विवेकशून्य है।
भावार्थ - सत्य अर्थ को बतलानेवाला तथा त्याग ने योग्य और ग्रहण करने योग्य पदार्थों को जाननेवाला सम्यग्दृष्टि मुनि उन अन्यतीर्थियों को यथार्थ बात की शिक्षा देता हुआ, यह कहता है, कि आप लोगों ने जिस मार्ग को स्वीकार किया है वह युक्तिसङ्गत नहीं है तथा आप सम्यग्दृष्टि साधुओं पर जो आक्षेप करते हैं, वह भी बिना विचारे करते हैं एवं आपका आचार व्यवहार भी विवेक से रहित है ।
टीका - 'तत्त्वेन' परमार्थेन मौनीन्द्राभिप्रायेण यथावस्थितार्थप्ररूपणया ते गोशालकमतानुसारिण आजीविकादयः बोटिका वा 'अनुशासिताः' तदभ्युपगमदोषदर्शनद्वारेण शिक्षा ग्राहिताः, केन? - अप्रतिज्ञेन नास्य मयेदमसदपि समर्थनीयमित्येवं प्रतिज्ञा विद्यते इत्यप्रतिज्ञो - रागद्वेषरहितः साधुस्तेन 'जानता' हेयोपादेयपदार्थपरिच्छेदकेनेत्यर्थः, कथमनुशासिता इत्याह - योऽयं भवद्भिरभ्युपगतो मार्गों यथा यतीनां निष्किञ्चनतयोपकरणाभावात् परस्परत उपकार्योपकारकभाव इत्येष 'न नियतो' न निश्चितो न युक्तिसङ्गतः, अतो येयं वाग् यथा - ये पिण्डपातं ग्लानस्याऽऽनीय ददति ते गृहस्थकल्पा इत्येषा 'असमीक्ष्याभिहिता' अपर्यालोच्योक्ता, तथा 'कृतिः' करणमपि भवदीयमसमीक्षितमेव, यथा चापर्यालोचितकरणता भवति भवदनुष्ठानस्य तथा नातिकण्डूयितं श्रेय इत्यनेन प्राग्लेशतः प्रतिपादितं, पुनरपि सदृष्टान्तं तदेव प्रतिपादयति ॥१४॥
टीकार्थ - जो वस्तुतः सत्य है अर्थात् जो जिनराज के अभिप्राय के अनुसार है अर्थात् जो वस्तु जैसी है उसको उसी तरह से प्ररूपणा करने रूप ही तत्त्व अर्थ है । उसके द्वारा गोशालक मतानुयायी और दिगम्बरों को शिक्षा दी जाती है। उन लोगों की मान्यता में दोष बताकर उन्हें सत्य अर्थ की शिक्षा दी जाती है । किसके द्वारा शिक्षा दी जाती है कहते है कि- अप्रतिज्ञ पुरुष के द्वारा मिथ्या अर्थ का भी समर्थन करूंगा ऐसी भावना को प्रतिज्ञ कहते है, वह जिसको नहीं है, उसे अप्रतिज्ञ कहते है, अर्थात् जो राग-द्वेष से रहित है, उसे अप्रतिज्ञ कहते है। उसके द्वारा शिक्षा दी जाती है तथा जो त्यागने योग्य और ग्रहण करने योग्य पदार्थ का निश्चय करने वाले हैं। उनके द्वारा शिक्षा दी जाती है। किस प्रकार शिक्षा दी जाती है? सो बतलाते हैं - आप लोगों ने जो यह मार्ग स्वीकार किया है कि साधु को निष्किञ्चन होने के कारण उपकरण बिलकुल नहीं रखने चाहिए और इसी कारण परस्पर एक दूसरे की सेवा भी नहीं करनी चाहिए, यह आपका मार्ग युक्ति संगत नहीं है तथा आप जो यह कहते
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