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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने तृतीयोद्देशकेः गाथा १३
उपसर्गाधिकारः टीका - किल वयमपरिग्रहतया निष्किञ्चना एवमभ्युपगमं कृत्वा यूयं भुग्ध्वं 'पात्रेषु' कांस्यपात्र्यादिषु गृहस्थभाजनेषु, 'तत्परिभोगाच्च तत्परिग्रहोऽवश्यंभावी, तथाऽऽहारादिषु मूछाँ कुरुध्वमित्यतः कथं निष्परिग्रहाभ्युपगमो भवतामकलङ्क इति, अन्यच्च 'ग्लानस्य' भिक्षाटनं कर्तुमसमर्थस्य यदपरैर्गृहस्थैरम्म्याहृतं कार्यते भवद्भिः, यतेरानयनाधिकाराभावाद् गृहस्थानयने च यो दोषसद्धावः स भवतामवश्यंभावीति, तमेव दर्शयति - यच्च गृहस्थैर्बीजोदकाधुपमर्दैनापादितमाहारं भुक्त्वा ग्लानमुद्दिश्योद्देशकादि 'यत्कृतं' यन्निष्पादितं तदवश्यं युष्मत्परिभोगायावतिष्ठते। तदेवं गृहस्थगृहे तद्भाजनादिषु भुञ्जानास्तथा ग्लानस्य च गृहस्थैरेव वैयावृत्त्यं कारयन्तो यूयमवश्यं बीजोदकादिभोजिन उद्देशिकादिकृतभोजिनश्चेति ॥१२।। किञ्चान्यत् -
टीकार्थ - हम लोग परिग्रह वर्जित होने के कारण निष्किञ्चन हैं । यह मानते हुए भी आप लोग कांसा के पात्र आदि गृहस्थों के पात्रों में भोजन करते हैं । गृहस्थों के पात्रों में भोजन करने के कारण आपको उसका परिग्रह अवश्य होता है तथा आप लोग आहार में मूर्छा भी करते हैं । इसलिए अपने को परिग्रह वर्जित मानना उसे किस प्रकार निष्कलङ्क कहा जा सकता है? तथा भिक्षा लाने के लिए जाने में असमर्थ रोगी साधु के लिए आप लोग गृहस्थों के द्वारा भोजन मंगवाते हैं परंतु साधु को गृहस्थों के द्वारा भोजन मंगाने का अधिकार नहीं है। इसलिए गृहस्थ के द्वारा लाये हुए आहार के खाने से जो दोष होता है, वह भी आपको अवश्य होता है । यही बात शास्त्रकार दिखलाते हैं। गृहस्थ लोग बीज और जल का उपमईन करके जो आहार तैयार करते हैं तथा रोगी साधु के निमित्त जो आहार बनाते हैं । उसका आप अवश्य आहार करते हैं । इस प्रकार गृहस्थों के घरों में जाकर उनके पात्रों में भोजन करते हुए तथा रोगी साधु की गृहस्थों के द्वारा सेवा कराते हुए आप लोग अवश्य बीज और कच्चे जल का उपभोग करते हैं एवं उद्दिष्ट आहार आदि का भोजन करते हैं ॥१२॥
लित्ता तिव्वाभितावेणं, उज्झिआ असमाहिया। नातिकंडूइयं सेयं, अरुयस्सावरज्झती
॥१३॥ ___ छाया - लिप्ताः तीव्राभितापेन, उज्झिता असमाहिताः । नातिकण्डूयितं श्रेयोऽरुषोऽपराध्यति ॥
अन्वयार्थ - (तिव्वाभितावेणं) आप लोग तीव्र अभिताप अर्थात् कर्मबन्धन से (लित्ता) उपलिप्त (उज्झिआ) सद्विवेक से रहित (असमाहिया) तथा शुभ अध्यवसाय से रहित हैं। (अरुयस्स) व्रण - घाव का (अतिकंडूइय) अत्यन्त खुजलाना (न सेयं) अच्छा नहीं है (अवरज्झती) क्योंकि वह दोष उत्पन्न करता है।
भावार्थ - आप लोग कर्मबन्ध से लिप्त होते हैं तथा आप सद्विवेक से हीन और शुभ अध्यवसाय से वर्जित हैं। देखिये व्रण को अत्यंत खुजलाना अच्छा नहीं है क्योंकि उससे विकार उत्पन्न होता है।
टीका - योऽयं षड्जीवनिकायविराधनयोद्दिष्टभोजित्वेनाभिगृहीतमिथ्यादृष्टितया च साधुपरिभाषणेन च तीव्रोऽभिताप:कर्मबन्धरूपस्तेनोपलिप्ताः - संवेष्टितास्तथा 'उज्झिय'त्ति सद्विवेकशून्या भिक्षापात्रादित्यागात्परगृह-भोजितयोद्देशकादिभोजित्वात् तथा 'असमाहिता' शुभाध्यवसायरहिताः सत्साधुप्रद्वेषित्वात्, साम्प्रतं दृष्टान्तद्वारेण पुनरपि तद्दोषाभिधित्सयाऽऽह - यथा
' व्रणस्यातिकण्डूयितं - नखैर्विलेखनं न श्रेयो - न शोभनं भवति, अपि त्वपराध्यति - तत्कण्ड्यनं व्रणस्य दोषमावहति, एवं भवन्तोऽपि सद्विवेकरहिताः वयं किल निष्किञ्चना इत्येवं निष्परिग्रहतया षड्जीवनिकायरक्षणभूतं भिक्षापात्रादिकमपि संयमोपकरणं परिहतवन्तः, तदभावाच्चावश्यंभावी अशुद्धाहारपरिभोग इत्येवं द्रव्यक्षेत्रकालभावानपेक्षणेन नातिकण्डूयितं श्रेयो भवतीति भावः ॥१३।। अपि च
टीकार्थ - छ: काय के जीवों का विनाश करके जो आप लोगों के निमित्त आहार तैयार किया जाता है, उस उद्दिष्ट आहर के भोजन करने से तथा मिथ्यादृष्टि को हठपूर्वक स्वीकार करने से एवं साधुओं की निंदा करने 1. प्रसझापादनं, तैःसम्बन्धमात्रस्य परिग्रहत्वाभ्युपगमात्, अन्यथा निर्मूच्छ धर्मोपकरणधरणापत्तेः ।
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