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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा १३-१४
उपसर्गाधिकारः तं च भिक्खू परिन्नाय, सव्वे संगा महासवा । जीवियं नावकंखिज्जा, सोच्चा धम्मणुत्तरं
॥१३॥ छाया - तं च भिक्षुः परिहाय सर्वे सा महाश्रवाः । जीवितं नावकाइक्षेत, श्रुत्वा धर्ममनुत्तरम् ॥
अन्वयार्थ - (भिक्खू) साधु ! (तं च) उस ज्ञातिसम्बन्ध को (परिन्नाय) जानकर छोड़ देवे । क्योंकि (सव्वे) सभी (संगा) सम्बन्ध (महासवा) महान्, कर्म के आश्रवद्वार होते हैं। (अणुत्तर) सर्वोत्तम (धम्म) धर्म को (सोच्चा) सुनकर साधु, (जीवियं) असंयम जीवन की (नावकंखिजा) इच्छा न करे।
भावार्थ - हे साधु ! ज्ञाति संसर्ग को संसार का कारण जानकर छोड़ देवे, क्योंकि सभी सम्बन्ध, कर्मबन्ध के महान् आश्रवद्वार होते हैं। हे साधु ! सर्वोत्तम इस आर्हत धर्म को सुनकर असंयम जीवन की इच्छा न करे ।
टीका - 'तं च' ज्ञातिसङ्ग संसारैकहेतुं भिक्षुपिरिज्ञया (ज्ञात्वा) प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् । किमिति?, यतः 'सर्वेऽपि' ये केचन सङ्गास्ते 'महाश्रवा' महान्ति कर्मण आश्रवद्वाराणि वर्तन्ते । ततोऽनुकूलैरुपसर्गेरुपस्थितैरसंयमजीवितंगृहावासपाशं 'नाभिकाङ्क्षद्' नाभिलषेत्, प्रतिकूलैश्चोपसर्गः सद्भिर्जीविताभिलाषी न भवेद्, असमञ्जसकारित्वेन भवजीवितं नाभिकाङ्केत् । किं कृत्वा ? - 'श्रुत्वा' निशम्यावगम्य, कम् ? – 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं, नास्योत्तरोऽस्तीत्यनुत्तरंप्रधानं मौनीन्द्रमित्यर्थः ॥१३॥ अन्यच्च
टीकार्थ- साधु ! ज्ञातिसंसर्ग संसार का प्रधान कारण है, यह ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उसका त्याग कर देवे । क्योंकि जितने सङ्ग- सम्बन्ध हैं, वे सभी कर्म के महान आश्रवद्वार हैं । अतः अनुकूल उपसर्ग आने पर साधु असंयम जीवन अर्थात् गृहवास रूप पाशबन्धन की इच्छा न करे । तथा प्रतिकूल उपसर्ग आने पर जीवन की इच्छा न करे । साधु, असत् कर्म के अनुष्ठान से सांसारिक जीवन की इच्छा न करे । क्या कर के? कहते हैं कि सुनकर । क्या सुनकर? समाधान यह है कि- श्रुत और चारित्र नामक धर्म जो सबसे प्रधान और मुनीन्द्रप्रतिपादित है उसको सुनकर ॥१३॥
अहिमे संति आवट्टा, कासवेणं पवेइया । बुद्धा जत्थावसप्पंति, सीयंति अबुहा जहिं
॥१४॥ छाया - अथेमे सन्त्यावर्ताः काश्यपेन प्रवेदिताः । वृद्धाः यत्रापसर्पन्ति सीदन्त्यषुधाः यत्र ।
अन्वयार्थ - (अह) इसके पश्चात् (कासवेणं) काश्यपगोत्री भगवान् महावीरस्वामी के द्वारा (पवेइया) बताये हुए (इमे) ये (आवट्टा) आवर्त - चक्कर (सन्ति) हैं । (जत्थ) जिनके आने पर (बुद्धा) ज्ञानी पुरुष (अवसप्पन्ति) उनसे अलग हट जाते हैं। (अबुहा) परन्तु अज्ञानी पुरुष, (जहिं) जिसमें (सीयन्ति) आसक्त होते हैं।
भावार्थ - इसके पश्चात् भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा वर्णित ये आवर्त (भँवर) जानने चाहिए । विद्वान् पुरुष इन आवों से दूर रहते हैं परंतु निर्विवेकी इनमें फँस जाते हैं।
टीका - 'अथे' त्यधिकारान्तरदर्शनार्थः, पाठान्तरं वा 'अहो' इति, तच्च विस्मये, ‘इमे' इति एते प्रत्यक्षासन्नाः सर्वजनविदितत्वात् 'सन्ति' विद्यन्ते वक्ष्यमाणा आवर्तयन्ति - प्राणिनं भ्रामयन्तीत्यावर्ताः, तत्र द्रव्यावर्ताः नद्यादेः, भावावर्तास्तूत्कटमोहोदयापादितविषयाभिलाषसंपादकसंपत्प्रार्थनाविशेषाः, एते चावर्ताः 'काश्यपेन' श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामिना उत्पन्नदिव्यज्ञानेन 'आ(प्र)वेदिताः' कथिताः प्रतिपादिताः, 'यत्र' येषु सत्सु 'बुद्धा' अवगततत्त्वा आवर्तविपाकवेदिनस्तेभ्यः 'अपसर्पन्ति' अप्रमत्ततया तदूरगामिनो भवन्ति, अबुद्धास्तु निर्विवेकतया येष्ववसीदन्ति-आसक्तिं कुर्वन्तीति ॥१४॥
टीकार्थ - यहां से दूसरा प्रकरण आरंभ होता है। यह बताने के लिए 'अथ' शब्द आया है। कहीं - कहीं 'अथ' के स्थान में 'अहो' यह पाठ पाया जाता है । 'अहो' विस्मय अर्थ का बोधक है जो प्राणियों को
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