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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकेः गाथा १९-२०
उपसर्गाधिकारः (आगारमावसंतस्स) घर में निवास करने पर भी (सव्वे) वह सब (तहा) उसी तरह (संविजइ) बने रहेंगे ।
__ भावार्थ - हे सन्दरव्रतधारिन! तुमने जिन महाव्रत आदि नियमों का अनुष्ठान किया है, वह सब गृहक पर भी उसी तरह बने रहेंगे।
टीका - यस्त्वया पूर्वं 'भिक्षुभावे' प्रव्रज्यावसरे 'नियमो' महाव्रतादिरूप: 'चीर्णः' अनुष्ठितः इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमगतेन हे सुव्रत! स साम्प्रतमपि 'अगारं' गृहम् 'आवसतः' गृहस्थभावं सम्यगनुपालयतो भवतस्तथैव विद्यत इति, न हि सुकृतदुष्कृतस्यानुचीर्णस्य नाशोऽस्तीति भावः ॥१८॥ किञ्च -
टीकार्थ - हे मुनिवर! प्रव्रज्या के समय इन्द्रिय और मन को शांत करके आपने जिन महाव्रत आदि नियमों का अनुष्ठान किया है, वे गृहस्थभाव के सम्यग् रूप से पालन समय में भी उसी तरह बने रहेंगे क्योंकि मनुष्य
और दष्कत की जो आचरणा हई है. उसका नाश नहीं होता है । अर्थात आपके सकृत का फल आपको मिलेगा ही ॥१८॥
चिरं दूइज्जमाणस्स, दोसो दाणिं कुतो तव? । इच्चेव णं निमंति, नीवारेण व सूयरं
॥१९॥ छाया - चिरं विहरतः दोष इदानीं कुतस्तव । इत्येव निमन्त्रयन्ति नीवारेणेव सूकरम् ॥
अन्वयार्थ - हे मुनिवर! (चिर) बहुत काल से (दूइज्जमाणस्स) संयम का अनुष्ठान पूर्वक विहार करते हुए (तव) आपको (दाणिं) इस समय (दोसो) दोष (कुतो) कैसे हो सकता है? (इच्वेव) इस प्रकार (नीवारेण) चांवल के दानों का प्रलोभन देकर (सूयरं व) जैसे लोग सुअर को फँसाते हैं, इसी तरह मुनि को (निमतंति) भोग भोगने के लिए निमन्त्रित करते हैं।
भावार्थ - हे मुनिवर! आपने बहुत काल तक संयम का अनुष्ठान किया है। अब भोग भोगने पर भी आपको दोष नहीं हो सकता है। इस प्रकार भोग भोगने का आमंत्रण देकर लोग साध को उसी तरह फंसा लेते हैं. जैसे चावल के दानों से सुअर को फंसाते हैं।
टीका - 'चिरं' प्रभूतं कालं संयमानुष्ठाने 'दूइज्जमाणस्स'त्ति विहरतः सतः 'इदानीं' साम्प्रतं दोषः कुतस्तव?, नैवास्तीति भावः, इत्येवं हस्त्यश्वरथादिभिर्वस्त्रगन्धालङ्कारादिभिश्च नानाविधैरुपभोगोपकरणैः करणभूतैः 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे 'तं' भिक्षु साधुजीविनं 'निमन्त्रयन्ति' भोगबुद्धिं कारयन्ति, दृष्टान्तं दर्शयति - यथा 'नीवारेण' व्रीहिविशेषकणदानेन 'सूकरं' वराहं कूटके प्रवेशयन्ति एवं तमपि साधुमिति ॥१९॥
टीकार्थ - पूर्वोक्त चक्रवर्ती आदि साधु से कहते हैं कि हे मुनिवर! आपने चिरकाल तक संयम का अनुष्ठान किया है । अतः अब आपको भोग भोगने में कोई दोष नहीं हो सकता है। इस प्रकार कहते हुए वे लोग, हाथी, घोड़ा, रथ आदि तथा वस्त्र, गंध और अलंकार आदि नानाविध, भोग साधनों के द्वारा संयम के साथ जीनेवाले साधु में भोगबुद्धि उत्पन्न करते हैं । इस विषय में दृष्टान्त दिया जाता है - जैसे चावल के दानों के द्वारा सुअर को कूटपाश में फंसाते हैं। इसी तरह उस साधु को भी असंयम में फंसाते हैं ॥१९॥
अनन्तरोपन्यस्तवार्तोपसंहारर्थमाह -
अब सूत्रकार पूर्वोक्त बातों का उपसंहार करने के लिए कहते हैं - चोइया भिक्खचरियाए, अचयंता जवित्तए । तत्थ मंदा विसीयंति, उज्जाणंसि व दुब्बला
॥२०॥ छाया - चोदिताः भिक्षुचर्ययाऽशक्नुवन्तो यापयितुम् । तत्र मब्दाः विषीदन्ति उद्यान इव दुर्बलाः ॥
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