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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा १७-१८
उपसर्गाधिकारः (हत्थऽस्सरहजाणेहिं) हाथी, घोड़ा, रथ और पालकी आदि पर बैठो (विहारगमणेहि य) तथा चित्तविनोद के लिए बाग बगीचों में चला करो ।
भावार्थ - पूर्वोक्त चक्रवर्ती आदि मुनि के निकट उपस्थित होकर कहते हैं, कि हे महर्षे! तुम, हाथी, घोड़ा, रथ, और पालकी आदि पर बैठो तथा क्रीड़ा के लिए बगीचे आदि में चला करो । तुम इन उत्तम भोगों को भोगो । हम तुम्हारी पूजा करते हैं।
टीका - हस्त्यश्वरथयानैः तथा 'विहारगमनैः', विहरणं क्रीडनं विहारस्तेन गमनानि विहारगमनानि - उद्यानादौ क्रीडया गमनानीत्यर्थः, चशब्दादन्यैश्चेन्द्रियानुकूलैर्विषयैरुपनिमन्त्रयेयुः, तद्यथाः भुक्ष्व 'भोगान्' शब्दादिविषयान् 'इमान्' अस्माभिर्डोंकितान् प्रत्यक्षासन्नान् 'श्लाघ्यान्' प्रशस्तान् अनिन्द्यान् ‘महर्षे' साधो! वयं विषयोपकरणढौकनेन 'त्वां' भवन्तं 'पूजयामः' सत्कारयाम इति ॥१६॥ किञ्चान्यत् -
टीकार्थ - पूर्वोक्त चक्रवर्ती आदि मुनि के निकट आकर हाथी, घोड़ा, रथ और पालकी पर बैठने के लिए तथा क्रीड़ा के निमित्त बगीचा आदि में जाने के लिए एवं 'च' शब्द से इन्द्रियों को सुख देने वाले दूसरे विषयों को भोगने के लिए आमन्त्रित कर सकते हैं। वे यह कह सकते है कि हे मुनिवर ! मेरे द्वारा अर्पण किये हुए इन उत्तमोत्तम शब्दादि विषयों को तुम भोगो । ये विषय, तुम्हारे सामने उपस्थित हैं । हे महर्षे ! हम विषय भोग की सामग्री देकर तुम्हारा सत्कार करते हैं ॥१६।। और भी -
वत्थगन्धमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य । भुंजाहिमाई, भोगाई आउसो! पूजयामु तं
॥१७॥ छाया - वसगन्धमलद्वारं स्त्रियः शयनासने च । भुङ्वेमान् भोगान् आयुष्मन् पूजयामस्त्वाम् ॥
अन्वयार्थ - (आउसो) हे आयुष्मन्! (वत्थगन्धं) वस्त्र, गंध, (अलंकार) अलंकार - भूषण (इत्थीओ) स्त्रियां (सयणाणि य) और शय्या (इमाई) इन (भोगाई) भोगों को (भुंज) आप भोगें (तं) आपकी (पूजयामु) हम पूजा करते हैं।
भावार्थ - हे आयुष्मन्! वस्त्र, गंध, अलङ्कार - भूषण, स्त्रियाँ और शय्या इन भोगों को आप भोगें । हम आपकी पूजा करते है।
टीका - 'वस्त्रं' चीनांशुकादि 'गन्धाः' कोष्ठपुटपाकादयः, वस्त्राणि च गन्धाश्च वस्त्रगन्धमिति समाहारद्वन्द्वः तथा 'अलङ्कारम्' कटककेयूरादिकं तथा 'स्त्रियः' प्रत्यग्रयौवनाः 'शयनानि च' पर्यङ्कतूलीप्रच्छदपटोपधानयुक्तानि, इमान् भोगानिन्द्रियमनोऽनुकूलानस्माभिर्डोंकितान् 'भुक्ष्व' तदुपभोगेन सफलीकुरु, हे आयुष्मन्! भवन्तं 'पूजयामः' सत्कारयाम इति ॥१७॥ अपि च -
टीकार्थ - चीन देश में बने हुए वस्त्र आदि तथा कोष्ठ और पुटपाक आदि गंध, (यहां वस्त्राणि च गन्धाश्च वस्त्रगन्धम् यह समाहार द्वन्द्वसमास है) तथा कटक और केयूर आदि भूषण एवं नवयौवना स्त्री तथा रुई के तोसक और तकिया से युक्त पलंग, इन भोगों को आप भोगें। ये भोग इन्द्रिय और मन को प्रसन्न करने वाले हैं इसलिए हमारे द्वारा दिये हुए इन विषयों को भोगकर आप इन्हें सफल करें। हे आयुष्यमन्! हम आपका सत्कार करते हैं ॥१७॥
जो तुमे नियमो चिण्णो, भिक्खुभावंमि सुव्वया !। आगारमावसंतस्स, सव्वो संविज्जए तहा
छाया - यस्त्वया नियमचीर्णो भिक्षुभावे सुव्रत! । अगारमावसस्तव सर्वः संविद्यते तथा ॥ अन्वयार्थ - (सुव्वया!) हे सुन्दखतवाले मुनिवर! (तुमे) तुमने (जे) जिस (नियमे) नियम का (चिण्णो) अनुष्ठान किया है
॥१८॥
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