Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 240
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने द्वितीयोदेशके: गाथा १०-११ उपसर्गाधिकारः टीका - णमिति वाक्यालङ्कारे 'इत्येव' पूर्वोक्तया नीत्या मातापित्रादयः कारुणिकैर्वचोभिः करुणामुत्पादयन्तः स्वयं वा दैन्यमुपस्थिताः 'तं' प्रव्रजितं प्रव्रजन्तं वा सुसेहन्ति त्ति सुष्ठु शिक्षयन्ति व्युद्ग्राहयन्ति, स चापरिणतधर्माऽल्पसत्त्वो गुरुकर्मा ज्ञातिसङ्गैर्विबद्धो - मातापितृपुत्रकलत्रादिमोहितः ततः 'अगारं' गृहं प्रव्रज्यां परित्यज्य गृहपाशमनुबध्नाति ॥९॥ किञ्चान्यत् कार्थ 'णं' शब्द वाक्यालंकार में आया है। पूर्वोक्त रीति से करुणामय वचन बोलकर साधु के चित्त में करुणा उत्पन्न करानेवाले अथवा स्वयं दीनता को प्राप्त साधु के माता-पिता आदि स्वजन वर्ग अच्छी तरह साधु को शिक्षा देते हैं और साधु के हृदय में अपनी बात को स्थापित करते हैं । वह साधु भी कच्चा धर्मवाला और अल्पपराक्रमी तथा गुरुकर्मी होने के कारण माता, पिता, पुत्र और स्त्री में मोहित होकर घर की ओर दौड़ता है। वह प्रव्रज्या को छोड़कर फिर गृहपाश में बंध जाता है ||९|| - जहा रुक्खं वणे जायं, मालुया पडिबंधई । एवं णं पडिबंधंति, णातओ असमाहिणा 118011 छाया - यथा वृक्षं वने जातं मालुका प्रतिबध्नाति । एवं प्रतिबध्नन्ति ज्ञातयोऽसमाधिना । अन्वयार्थ - ( जहा ) जैसे (वणे जायं) वन में उत्पन्न (रुक्खं) वृक्ष को (मालुया) लता (पडिबंधई) बांध लेती है ( एवं ) इसी तरह (णातओ) ज्ञातिवाले ( असमाहिणा) असमाधि के द्वारा उस साधु को (पडिबंधंति) बांध लेते हैं । भावार्थ - जैसे जंगल में उत्पन्न वृक्ष को लता बांध लेती है, इसी तरह साधु को, ज्ञातिवाले असमाधि के द्वारा बांध लेते हैं । टीका यथा वृक्षं 'वने' अटव्यां 'जातम्' उत्पन्नं 'मालुया' वल्ली 'प्रतिबध्नाति' वेष्टयत्येवं 'णं' इति वाक्यालङ्कारे 'ज्ञातयः' स्वजनाः 'तं' यतिं असमाधिना प्रतिबध्नन्ति, ते तत्कुर्वन्ते येनास्यासमाधिरुत्पद्यत इति, तथा चोक्तम् - 1 अमित्तो मित्तवेसेणं, कंठे घेतॄण रोयइ । मा मित्ता! सोग्गइं जाहि, दोवि गच्छामु दुग्गई ||१|| ॥१०॥ अपि च - टीकार्थ जैसे जंगल में उत्पन्न वृक्ष को लता वेष्टित कर देती है । इसी तरह स्वजनवर्ग उस साधु को असमाधि के द्वारा बांध लेता है। वे, वह कार्य करते हैं, जिससे उस साधु को असमाधि ( अशान्ति) उत्पन्न होती है । यहां 'णं' शब्द वाक्यालंकार में आया है। कहा है कि - - 'अमित्तोमित्तवेसेणं' अर्थात् वस्तुतः परिवार वर्ग मित्र नहीं किन्तु अमित्र है वह मित्र की तरह कण्ठ में लिपटकर रोता मानो वह कहता है कि हे मित्र ! तूं सद्गति में न जा । आओ हम तुम दोनों ही दुर्गति में चलें ||१०||| और भी विबद्धो नातिसंगेहिं, हत्थी वावि नवग्गहे । पिट्ठतो परिसप्पंति, सुयगोव्व अदूरए छाया - विषद्धो ज्ञातिसङ्गैर्हस्तीवाऽपि नवग्रहे । पृष्ठतः परिसर्पन्ति सूतगौरिवादूरगा । अन्वयार्थ - (नातिसंगेहिं) माता, पिता आदि स्वजनवर्ग के सम्बन्ध द्वारा (विबद्धो ) बंधे हुए साधु के (पिट्ठतो) पीछे-पीछे ( परिसप्पन्ति ) स्वजनवर्ग चलते हैं और (नवग्गहे हत्थी वावि ) नवीन ग्रहण किये हुए हाथी के समान उसके अनुकूल आचरण करते हैं। तथा (सुयगोव्व अदूरए ) नई व्याई हुई गाय जैसे अपने बच्छड़े के पास ही रहती है, उसी तरह परिवार वर्ग, उसके पास ही रहता है । 1. अमित्रं मित्रवेषेण कण्ठे गृहीत्वा रोदिति । मा मित्र ! सुगतीर्याः द्वावपि गच्छावो दुर्गतिम् ॥ २०० 113311 *

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