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उपसर्गाधिकारः
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा १३-१४ और भी -
संतत्ता केसलोएणं, बम्भचेरपराइया । तत्थ मंदा विसीयंति, मच्छा विट्ठा व 'केयणे
॥१३॥ छाया - सन्तप्ताः केशलुशनेन, ब्रह्मचर्य्यपराजिताः । तत्र मन्दाः विषीदन्ति मत्स्याः विद्धा इव केतने ॥
अन्वयार्थ - (केसलोएणं) केशलुचन से (संतत्ता) पीड़ित (बम्भचेरपराइया) और ब्रह्मचर्य से पराजित (मंदा) मूर्ख जीव, (केयणे) जाल में (विट्ठा) फंसी हुई (मच्छा व) मच्छली की तरह (विसीयंति) क्लेश अनुभव करते है।
भावार्थ - केशलोच से पीड़ित और ब्रह्मचर्य पालन में असमर्थ पुरुष प्रव्रज्या लेकर इस प्रकार क्लेश पाते हैं जैसे जाल में फंसी मछली दुःख भोगती है।
टीका - समन्तात् तप्ताः सन्तप्ताः केशानां 'लोच' उत्पाटनं तेन, तथाहि - सरुधिरकेशोत्पाटने हि महती पीडोपपद्यते, तया चाल्पसत्त्वाः विस्रोतसिकां भजन्ते, तथा 'ब्रह्मचर्य' बस्तिनिरोधस्तेन च 'पराजिताः' पराभग्नाः सन्तः 'तत्र' तस्मिन् केशोत्पाटनेऽतिदुर्जयकामोद्रेके वा सति 'मन्दा' जडा - लघुप्रकृतयो विषीदन्ति संयमानुष्ठानं प्रति शीतलीभवन्ति, सर्वथा संयमाद् वा भ्रश्यन्ति, यथा मत्स्याः 'केतने' मत्स्यबन्धने प्रविष्टा निर्गतिकाः सन्तो जीविताद् भ्रश्यन्ति, एवं तेऽपि वराकः सर्वंकषकामपराजिताः संयमजीवितात् भ्रश्यन्ति ॥१३।। किञ्च -
टीकार्थ - केशों को उखाडना, 'केशलोच' कहलाता है । रक्त के साथ केश को उखाड़ने से बड़ी भारी पीड़ा उत्पन्न होती है, इसलिए कोई अल्पपराक्रमी जीव, केशलोच से पीड़ित होकर दीनता को प्राप्त होते हैं । वस्तिस्थान को रोकना ब्रह्मचर्य कहलाता है, उससे पराजित लघुप्रकृतिवाला मूर्ख पुरुष जब केश के उखाड़ने का समय आता है तथा जब अति दुर्जय काम का वेग उमड़ता है, तब संयम के अनुष्ठान में शीतल हो जाते हैं । अथवा वे सर्वथा संयम से भ्रष्ट हो जाते हैं। जैसे जाल में पड़ी हुई मछली, उसमें से निकलने का मार्ग न पाकर उसी जगह मर जाती है । इसी तरह वे बिचारे सर्व विजयी काम से पराजित होकर संयमजीवन से भ्रष्ट हो जाते हैं।।१३।। और भी -
आयदंडसमायारे, मिच्छासंठियभावणा । हरिसप्पओसमावन्ना, केई लूसंतिऽनारिया
॥१४॥ छाया - भात्मदण्डसमाचाराः मिथ्यासंस्थितभावनाः । हर्षप्रद्वेषमापनाः केपि खूषयन्त्यनााः ॥
अन्वयार्थ - (आयदंडसमायारे) जिससे आत्मा कल्याण से भ्रष्ट हो जाता हैं, ऐसा आचार करने वाले (मिच्छासंठियभावणा) जिनकी चित्तवृत्ति, विपरीत है (हरिसप्पओसमावन्ना) तथा जो राग और द्वेष से युक्त हैं, ऐसे (केई) कोई (अनारिया) अनार्य पुरुष (लूसंति) साधु को पीड़ा देते हैं।
भावार्थ - जिससे आत्मा दंड का भागी होता है ऐसा आचार करनेवाले, तथा जिनकी चित्तवृत्ति विपरीत है और जो राग तथा द्वेष से युक्त हैं । ऐसे कोई अनार्या पुरुष, साधु को पीड़ा देते हैं।
टीका - आत्मा दण्डयते - खण्डयते हितात् भ्रश्यते येन स आत्मदण्डः 'समाचारः' अनुष्ठानं येषामनार्याणां ते तथा, तथा मिथ्या - विपरीता संस्थिता - स्वाग्रहारूढा भावना - अन्तःकरणवृत्तिर्येषां ते मिथ्यासंस्थितभावनामिथ्यात्वोपहतदृष्टय इत्यर्थः, हर्षश्च प्रद्वेषश्च हर्षप्रद्वेषं तदापन्ना रागद्वेषसमाकुला इति यावत्, त एवम्भूता अनार्याः सदाचारं साधुं क्रीडया प्रद्वेषेण वा क्रूरकर्मकारित्वात् 'लूषयन्ति' कदर्थयन्ति दण्डादिभिर्वाग्भिर्वेति।।१४।।
1. कढवल्लसंठिआ मच्छा पाणीए पडिनियत्ते ओयारिजति खुणी एमादि
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