Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 235
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने द्वितीयोद्देशः गाथा १ उपसर्गाधिकारः ॥ अथ तृतीयोपसर्गाध्ययनस्य द्वितीयोद्देशकः प्रारभ्यते ॥ उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीयः समारभ्यते - - प्रथम उद्देशक कहा जा चुका, अब दूसरा आरम्भ किया जाता है। इस दूसरे उद्देशक का प्रथम उद्देशक के साथ संबंध है । इसका प्रथम सूत्र यह है अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहोपसर्गपरिज्ञाध्ययने उपसर्गाः प्रतिपिपादयिषिताः ते चानुकूलाः प्रतिकूलाश्च तत्र प्रथमोद्देशके प्रतिकूलाः प्रतिपादिताः, इह त्वनुकूलाः प्रतिपाद्यन्त इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्याऽऽदिसूत्रम् यह तीसरा अध्ययन उपसर्गपरिज्ञाऽध्ययन है । इसमें उपसगों का स्वरूप बताना इष्ट है। उपसर्ग द्विविध हैं, प्रतिकूल और अनुकूल । प्रतिकूल उपसर्ग प्रथम उद्देशक में कहे जा चुके हैं अतः शेष रहे हुए अनुकूल उपसर्ग इस उद्देशक में बताये जाते हैं । इस दूसरे उद्देशक की उत्पत्ति का यही सम्बन्ध है । इसका प्रथम सूत्र यह हैअहिमे सुहुमा संगा, भिक्खुणं जे दुरुत्तरा । जत्थ एगे विसीयंति, ण चयंति जवित्तए 11811 छाया अथेमे सूक्ष्माः सङ्गाः भिक्षूणां ये दुरुत्तराः । तत्रैके विषीदन्ति न शक्नुवन्ति यापयितुम् ॥ अन्वयार्थ - ( अह) इसके पश्चात् (इमे) ये (सुहुमा) सूक्ष्म - बाहर नहीं दिखनेवाले ( सङ्गा) बांधव आदि के साथ सम्बन्ध रूप उपसर्ग होते हैं (जो ) जो (भिक्खुणं) साधुओं के द्वारा (दुरुत्तरा) दुस्तर हैं (जवित्तए) वे संयमपूर्वक अपना निर्वाह करने में (न चयंति) समर्थ नहीं होते भावार्थ - प्रतिकूल उपसर्ग कहने के पश्चात् अब अनुकूल उपसर्ग कहे जाते हैं। ये अनुकूल उपसर्ग बड़े सूक्ष्म होते हैं । साधु पुरुष, बड़ी कठिनाई के साथ इन उपसर्गों को पार कर पाते हैं। परंतु कई पुरुष इन उपसर्गों के कारण बिगड़ जाते हैं । वे संयम जीवन का निर्वाह करने में समर्थ नहीं होते हैं । टीका 'अथ' इति आनन्तर्ये, प्रतिकूलोपसर्गानन्तरमनुकूलाः प्रतिपाद्यन्त इत्यानन्तर्यार्थः, ते 'इमे:' अनन्तरमेवाभिधीयमानाः प्रत्यक्षासन्नवाचित्वादिदमोऽभिधीयन्ते, ते च 'सूक्ष्माः' प्रायश्चेतोविकारकारित्वेनान्तराः, न प्रतिकूलोपसर्गा इव बाहुल्येन शरीरविकारित्वेन प्रकटतया बादरा इति, 'सङ्गा' मातापित्रादिसम्बन्धाः, य' एते 'भिक्षूणां' साधूनामपि 'दुरुत्तरा' दुर्लङ्घया - दुरतिक्रमणीया इति, प्रायो जीवितविघ्नकरैरपि प्रतिकूलोपसर्गैरुदीर्णैर्माध्यस्थ्यमवलम्बयितुं महापुरुषैः शक्यम्, एते त्वनुकूलोपसर्गास्तानप्युपायेन धर्माच्च्यावयन्ति ततोऽमी दुरुत्तरा इति, 'यत्र' येषूपसर्गेषु सत्सु 'एके' अल्पसत्त्वाः सदनुष्ठानं प्रति 'विषीदन्ति' शीतलविहारित्वं भजन्ते सर्वथा वा संयमं त्यजन्ति, नैवात्मानं संयमानुष्ठानेन 'यापयितुं' - वर्तयितुं तस्मिन् वा व्यवस्थापयितुं शक्नुवन्ति' समर्था भवन्तीति ॥ १ ॥ टीकार्थ इस गाथा में 'अथ' शब्द अनन्तर अर्थ को बताने के लिए आया है । प्रतिकूल उपसर्ग कहने के पश्चात् "अब अनुकूल उपसर्ग कहे जाते हैं" यह बताना इसका प्रयोजन है । यहां, प्रत्यक्ष और निकटवर्ती वस्तु का वाचक ‘इमे' इदम् शब्द से उन अनुकूल उपसर्गों का ही ग्रहण किया गया है । जो इसके आगे ही बताये जानेवाले हैं । बन्धु, बांधवों का स्नेहरूप उपसर्ग बाह्य शरीर को नहीं, किन्तु चित्त को विकृत करनेवाला है, इसलिए यह सूक्ष्म यानी आन्तरिक है, जैसे प्रतिकूल उपसर्ग, प्रकट रूप से बाह्य शरीर को विकृत करते हैं, इस प्रकार यह उपसर्ग बाह्य शरीर को विकृत नहीं करता, इसलिए यह स्थूल नहीं है । यहां 'सङ्ग' पद माता, पिता आदि 1. यतः प्र. १९५

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