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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकेः गाथा २३
है। तथा ( वयसा ) मन, वचन और काय से (सीउन्ह) शीत और उष्ण को ( अहियासए) सहन करते हैं ।
भावार्थ - बहुत माया करनेवाली और मोह से आच्छादित प्रजाएँ अपनी इच्छा से ही नरक आदि गतियों में जाती हैं । परन्तु साधु पुरुष, कपट रहित कर्म के द्वारा मोक्ष अथवा संयम में लीन होते हैं और मन, वचन तथा काया से शीत, उष्ण, परीषह को सहन करते हैं ।
टीका 'छन्दः' अभिप्रायस्तेन तेन स्वकीयाभिप्रायेण कुगतिगमनैकहेतुना 'इमाः प्रजाः' अयं लोकस्तासु गतिषु प्रलीयते, तथाहि - 1 छागादिवधमपि स्वाभिप्रायग्रहग्रस्ताः धर्मसाधनमित्येवं प्रगल्भमाना विदधति, अन्येतु संघादिकमुद्दिश्य दासीदासधनधान्यादिपरिग्रहं कुर्वन्ति, तथाऽन्ये मायाप्रधानैः 2 कुक्कुटैरसकृदुत्प्रोक्षणश्रोत्रस्पर्शनादिभिमुग्धजनं प्रतारयन्ति, तथाहि
मानपरित्यागाधिकारः
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"कुक्कुटसाध्यो लोको नाकुक्कुटतः प्रवर्त्तते किञ्चित् । तस्माल्लोकस्यार्थे पितरमपि स कुक्कुटं कुर्यात् ||१||” तथेयं प्रजा 'बहुमाया' कपटप्रधाना, किमिति ? यतो मोह: अज्ञानं तेन 'प्रावृता' आच्छादिता सदसद्विवेकविकलेत्यर्थः, तदेतदवगम्य 'माहणे 'त्ति साधुः 'विकटेन' प्रकटेनामायेन कर्मणा मोक्षे संयमे वा प्रकर्षेण लीयते प्रलीयते, शोभनभावयुक्तो भवतीति भाव:, तथा शीतं च उष्णं च शीतोष्णं शीतोष्णा वा अनुकूलप्रतिकूलपरीषहास्तान् वाचा कायेन मनसा च करणत्रयेणाऽपि सम्यगधिसहेत इति ॥२२॥ अपि च
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टीकार्थ प्रजाजन, अपने अपने अभिप्राय के अनुसार ही भिन्न-भिन्न गतियों में जाते हैं। उनकी दुर्गति का कारण एकमात्र उनका अभिप्राय ही है । कोई लोग बकरे आदि प्राणियों का वध करना धर्म का साधन मानते हैं और इस कार्य को वे धृष्टता के साथ करते हैं । तथा दूसरे लोग अपने संघ की रक्षा के लिए दासी दास और धन-धान्य आदि परिग्रहों का संग्रह करते हैं । एवं कोई, बार-बार शरीर पर जल छिटकना और कानों को स्पर्श करना आदि माया प्रधान व्यापारों के द्वारा भोले जीवों को ठगते हैं। जैसे कि वे कहते हैं "कुक्कुट साध्यो लोको” इत्यादि । अर्थात् यह लोक कपट से ही सिद्ध होता है। बिना कपट के कुछ भी काम नहीं होता है, इसलिए लोक व्यवहार के लिए पिता से भी कपट करना चाहिए । तथा यह प्रजा, कपट प्रधान है, क्योंकि यह मोह यानी अज्ञान से आच्छादित है, अतः यह सत् और असत् के विवेक से वर्जित है, अतः साधु पुरुष इस बात को जानकर माया रहित कर्म के द्वारा मोक्ष या संयम में लीन होते हैं । वे शुभ भाव से युक्त रहते हैं । यह आशय है । साधु शीत और उष्ण अथवा अनुकूल और प्रतिकूल परीषहों को मन, वचन और काय तीनों करणों से सहन करते हैं ॥२२॥
कुज अपराजिए जहा अक्खेहिं कुसलेहिं दीवयं ।
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कडमेव गहाय णो कलिं, नो 'तीयं नो चेव दावरं
छाया
॥२३॥
कुजयोऽपराजितो यथाऽक्षैः कुशलो दीव्यन् । कृतमेव गृहीत्वा नो कलि, नो त्रैतं नो चैव द्वापरम् ॥ व्याकरण - (अपराजिए) कुजय का विशेषण (जहा) अव्यय (कुजए) कर्ता (अक्खेहिं) करण (दीवयं) कर्ता का विशेषण (कडं ) कर्म (एव) अव्यय ( गहाय ) पूर्व कालिक क्रिया (कलिं) कर्म (तीयं, दावरं ) कर्म ।
अन्वयार्थ - ( अपराजिए) पराजित न होनेवाला (कुसलेर्हि) चतुर (कुजए) जुआड़ी (जहा) जैसे (अक्खेहिं दीवयं) जुआ खेलता हुआ (कडमेव गहाय) कृत नामक स्थान को ही ग्रहण करता है (णो कलिं) कलि को नहीं ग्रहण करता है तथा (णो तीयं नो चेव दावरं) तृतीय और द्वितीय स्थान को भी ग्रहण नहीं करता हैं ।
भावार्थ - जुआ खेलने में निपुण और किसी से पराजित न होनेवाला जुआड़ी जैसे जुआ खेलता हुआ सर्वश्रेष्ठ कृत नामक स्थान को ही ग्रहण करता है, कलि, द्वापर, और त्रेता नामक स्थानों को ग्रहण नहीं करता है, उसी तरह पण्डित पुरुष, सर्वश्रेष्ठ सर्वज्ञोक्त कल्याणकारी धर्म को ही स्वीकार करे जैसे- शेष स्थानों को छोड़कर चतुर जुआड़ी 1. बस्तादीति प्र. । 2. कुरुकुचैः इति प्र । 3. दीव्ववं चू. । 4. ट्का [इति चतुः संख्याद्योतकोऽक्षराङ्कः] णो चू. 1 5. त्रेतं चू. ।
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