________________
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने तृतीयोद्देशकः गाथा १४-१५
अनित्यताप्रतिपादकाधिकारः आत्मपर-तुल्यता सर्वत्र यतौ गृहस्थे च यदि वैकेन्द्रियादौ श्रूयतेऽभिधीयते आर्हते प्रवचने, तां च कुर्वन् स गृहस्थोऽपि सुव्रतः सन् देवानां पुरन्दरादीनां लोकं स्थानं गच्छेत्, किं पुनर्यो महासत्त्वतया पञ्चमहाव्रतधारी यतिरिति ॥१३।। अपि च
टीकार्थ - जो पुरुष गृह में निवास करता हुआ भी क्रमशः श्रावक धर्म को अङ्गीकार करके यथाशक्ति प्राणियोंकी हिंसा से निवृत्त रहता है तथा यति, गृहस्थ, अथवा आर्हत् प्रवचनोक्त एकेन्द्रिय आदि सभी प्राणियों में सम भाव रखता है अर्थात् अपने समान ही अन्य प्राणी को भी जानता है, वह सुव्रत पुरुष गृहस्थ होकर भी इन्द्रादि देवताओं के लोक में जाता है फिर जो पञ्चमहाव्रतधारी महापराक्रमी साधु हैं, उनकी तो बात ही क्या है ? ॥१३॥
सोच्चा भगवाणुसासणं सच्चे तत्थ 'करेज्जुवक्कमं । सव्वत्थ विणीयमच्छरे उंछं भिक्खु विसुद्धमाहरे
॥१४॥ ___छाया - श्रुत्वा भगवदनुशासनं, सत्ये तत्र कुर्य्यादुपक्रमम् । सर्वत्र विनीतमत्सरः, उज्छं भिक्षुर्विशुद्धमाहरेत् ॥
व्याकरण - (सोच्चा) पूर्व कालिक क्रिया (भगवाणुसासणं) कर्म (सच्चे तत्थ) अधिकरण (उवक्कम) कर्म (करेज्ज) क्रिया । (सव्वत्थ) अव्यय (विणीयमच्छरे) भिक्षु का विशेषण (भिक्खु) कर्ता (उंछं) कर्म (विसुद्धं) कर्म का विशेषण (आहरे) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (भगवाणुसासणं) भगवान् के अनुशासन यानी आगम को (सोच्चा) सुनकर (सच्चे) उस आगम में कहे हुए सत्य (तत्थ) संयम में (उवक्कम) उद्योग (करेज्ज) करे (सव्वत्थ) सर्वत्र (विणीयमच्छरे) मत्सर रहित होकर (भिक्खु) साधु (विसुद्धं) शुद्ध (उंछं) भिक्षा (आहरे) लावे ।
भावार्थ - भगवान् के आगम को सुनकर उसमें कहे हुए सत्य संयम में उद्योग करना चाहिए। किसी के ऊपर मत्सर (ईर्ष्या) नहीं करनी चाहिए । इस प्रकार वर्तते हुए साधु को शुद्ध आहार लाना चाहिए ।
टीका - ज्ञानेश्वर्यादिगुणसमन्वितस्य भगवतः-सर्वज्ञस्य शासनम्-आज्ञामागमं वा श्रुत्वा अधिगम्य तत्र तस्मिन्नागमे तदुक्ते वा संयमे सद्भ्यो हिते सत्ये लघुकर्मा तदुपक्रम-तत्प्राप्त्युपायं कुर्यात्, किंभूतः ? सर्वत्रापनीतो मत्सरो येन स तथा सोऽरक्तद्विष्टः क्षेत्रव (वा) स्तूपधिशरीरनिष्पिपासः, तथा उञ्छन्ति भैक्ष्यं विशुद्ध द्विचत्वारिंशद्दोषरहितमाहारं गृह्णीयादभ्यवहरेद्वेति ॥१४॥ किञ्च
टीकार्थ - ज्ञान और ऐश्वर्या आदि गुणों से समन्वित भगवान् सर्वज्ञ के आगम या आज्ञा को सुनकर लघुकर्मा परुष सज्जनों के हितकर उस आगम या आगमोक्त संयम की प्राप्ति का उपाय करे । कैसा होकर उपाय करे ? सभी पदार्थों में मत्सर रहित तथा क्षेत्र, गृह, उपधि और शरीर आदि में तृष्णा रहित तथा सब पदार्थों में रागद्वेष शून्य होकर उपाय करे । एवं ४२ प्रकार के दोषों से वर्जित आहार को साधु लेवे या खावे ॥१४||
सव्वं नच्चा अहिट्ठए, धम्मट्ठी उवहाणवीरिए । गुत्ते जुत्ते सदाजए, आयपरे परमायतहिते
॥१५॥ छाया - सर्व ज्ञात्वाऽधितिष्ठेत्, धर्मायुपधानवीर्यः । गुप्तो युक्तः सदा यतेतात्मपरयोः परमायतस्थितः ॥
व्याकरण - (सव्व) कर्म (नच्चा) पूर्व कालिक क्रिया (अहिट्ठए) क्रिया (धम्मट्ठी, उवहाणवीरिए, गुत्ते, जुत्ते, आयपरे, परमायतट्टिते) अध्याहत पुरुष के विशेषण (सदा) अव्यय (जए) क्रिया ।
__ अन्वयार्थ - (सर्व) सब पदार्थों को (नच्चा) जानकर साधु (अहिट्ठए) सर्वज्ञोक्त संवर का आश्रय लेवे (धम्मट्ठी) धर्म का प्रयोजन रखे (उवहाणवीरिए) तप में अपना पराक्रम प्रकट करे (गुत्ते जुत्ते) मन, वचन और काय से गुप्त रहे (सदा) सर्वदा (आयपरे) अपने और दूसरे के विषय में (जए) यत्न करे (परमायतट्टिते) और मोक्ष के लिए अभिलाष करे ।
भावार्थ - साधु, सब वस्तुओं को जानकर सर्वज्ञोक्त संवर का आश्रय लेवे । तथा वह धर्म को प्रयोजन समझता 1. करेहु चू. । 2. करेहु चू. ।
१७१