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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने तृतीयोद्देशकेः गाथा १९
अनित्यताप्रतिपादकाधिकारः हैं । यहाँ अलक्षित दुःख उपलक्षण है इसलिए वे असातावेदनीय स्वरूप स्पष्ट प्रतीत होनेवाले दुःखों से भी दुःखी होते हैं । वे अरहट यन्त्र की तरह बार-बार उन्हीं योनियों में जाते-आते रहते हैं। वे शठ पुरुषों का कर्म करते हैं, इसलिए शठ हैं । वे बार-बार भय-भीत होते रहते हैं। वे जन्म, जरा तथा मरण से पीड़ित रहते हैं । वे, बार-बार गर्भावास को प्राप्त करते हुए संसार में भ्रमण करते रहते हैं ॥१८॥
इणमेव खणं वियाणिया, णो सुलभं बोहिं च आहितं । एवं सहिएऽहिपासए2, आह जिणो इणमेव सेसगा
॥१९॥ छाया - इममेव क्षणं विज्ञाय नो सुलभं बोधि च भारख्यातम् । एवं सहितोऽधिपश्येद् आह जिन इदमेव शेषकाः ॥
___ व्याकरण - (इणं) क्षण का विशेषण (एव) अव्यय (खणं) कर्म (वियाणिया) पूर्व कालिक क्रिया (आहितं, सुलभ) बोधि का विशेषण (बोहिं) कर्म (एवं) अव्यय (सहिए) अध्याहृत पुरुष का विशेषण (अहिपासए) क्रिया (सेसगा) जिन का विशेषण (जिणो) कर्ता (इणं) कर्म (एव) अव्यय (आह) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (इणमेव) यही (खणं) अवसर है (बोहिं च) ज्ञान भी (णो सुलभ) सुलभ नहीं है (आहियं) ऐसा कहा है (विजाणिया) इस बात को जानकर (सहिए) ज्ञानादि संपन्न मुनि (एवं) ऐसा (अहिपासए) विचारे (जिणो) श्री ऋषभ जिनेवर ने (आह) यह कहा है (सेसगा) और शेष तीर्थंकरों ने भी (इणमेव) यही कहा है।
भावार्थ - ज्ञानादि संपन्न मुनि यह विचारे कि मोक्ष साधन का यही अवसर है और सर्वज्ञ पुरुषों ने कहा है कि बोध प्राप्त करना सुलभ नहीं है। आदि तीर्थकर श्री ऋषभदेवजी ने अपने पुत्रों से यह उपदेश किया था और दूसरे तीर्थंकरों ने भी यही कहा है।
टीका - इदमः प्रत्यक्षासन्नवाचित्वात् इमं द्रव्यक्षेत्रकालभावलक्षणं क्षणम् अवसरं ज्ञात्वा तदुचितं विधेयं, तथाहि- द्रव्यं जङ्गमत्वपञ्चेन्द्रियत्वसुकुलोत्पत्तिमानुष्यलक्षणं क्षेत्रमप्यायंदेशार्धषड्विंशतिजनपदलक्षणं कालोऽप्यवसर्पिणीचतुर्थारकादिः धर्मप्रतिपत्तियोग्यलक्षण: भावश्च धर्मश्रवणतच्छ्रद्धानचारित्रावरणकर्मक्षयोपशमाहित-विरतिप्रतिपत्त्युत्साहलक्षणः, तदेवंविधं क्षणम् अवसरं परिज्ञाय तथा बोधिं च सम्यग्दर्शनावाप्तिलक्षणां नो सुलभामिति, एवमाख्यातमवगम्य तदवाप्तौ तदनुरूपमेव कुर्यादिति शेषः, अकृतधर्माणां पुनर्दुर्लभा बोधिः, तथाहि - “लदेल्लियं च बोहिं अकरेंतो अणागयं च पत्थेती । अल्लं दाई बोहिं लब्भिसि कयरेण मोल्लेणं?।।१।।"
___ तदेवमुत्कृष्टतोऽपार्धपुद्गलपरावर्त्तप्रमाणकालेन पुनः सुदुर्लभा बोधिरित्येवं सहितो ज्ञानादिभिरधिपश्येत् बोधिसुदुर्लभत्वं पर्सालोचयेत्, पाठान्तरं वा अहियासएति, परीषहानुदीर्णान् सम्यग् अधिसहेत, एतच्चाह जिनो रागद्वेषजेता नाभेयोऽष्टापदे स्वान् सुतानुद्दिश्य, तथाऽन्येऽपि इदमेव शेषकाः जिना अभिहितवन्त इति ॥१९॥
टीकार्थ - 'इदम्' शब्द प्रत्यक्ष और समीप का वाचक है, इसलिए इस द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को मोक्ष साधन का अवसर जानकर मनुष्य को उसके उचित कार्य करने चाहिए । उनमें जंगम होना, पञ्चेन्द्रिय होना तथा उत्तम कुल में उत्पत्ति और मनुष्यता यह तो द्रव्य है । तथा साढ़े पच्चीस जनपद स्वरूप यह आर्य्य देश क्षेत्र है । एवं अवसर्पिणी और चौथा आरा इत्यादि धर्म प्राप्ति के योग्य काल है । तथा धर्म, श्रवण और उसमें श्रद्धान एवं चारित्रावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न विरति को स्वीकार करने में उत्साह रूप भाव अनुकूल अवसर है । ऐसे अवसर को हस्तगत जानकर तथा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति सुलभ नहीं है, यह शास्त्र का कथन जानकर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने पर उसके अनुरूप ही कार्य करना चाहिए । जिन्होंने धर्माचरण नहीं किया है, उनको बोध प्राप्त करना सुलभ नहीं है क्योंकि -
“प्राप्त ज्ञान के अनुसार कार्य नहीं करते हुए और अनागत ज्ञान की प्रार्थना करते हुए तुम कौनसा मूल्य देकर दूसरे ज्ञान को प्राप्त करोगे ?" 1. इणमो य चू. । 2. पस्सिया चू. । 3. लब्धां च बोधिमकुर्वन् अनागतां च प्रार्थयमानः । अन्यां तदा बोधि लप्स्यसे कतरेण मूल्येन ?||9||
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