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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने तृतीयोद्देशकः गाथा २१-२२
अनित्यताप्रतिपादकाधिकारः एवं सिद्धा अणंतसो, संपइ जे अ अणागयावरे
॥२१॥ छाया - त्रिविधेनाऽपि प्राणान् माहब्यादात्महितोऽनिदानसंवृतः ।
___ एवं सिद्धा अनन्तशः संप्रति ये चानागता अपरे ।। व्याकरण - (तिविहेण) करण तृतीयान्त (अवि) अव्यय (पाण) कर्म (मा) अव्यय (हणे) क्रिया (आयहिते) (अणियाण संवुडे) आक्षिप्त मुनि का विशेषण (एव) अव्यय (अणंतसो) अव्यय (सिद्धा) कर्ता (संपइ) अव्यय (जे) (अवरे) (अणागय) ये भी अध्याहृत मुनि के विशेषण ।
अन्वयार्थ - (तिविहेण वि) मन, वचन और काया इन तीनों से (पाण मा हणे) प्राणियों को न मारना चाहिए (आयहिते) अपने हित में प्रवृत्त (अणियाणसंवुडे) और स्वर्गादि की इच्छा रहित गुप्त रहना चाहिए (एवं) इस प्रकार (अणंतसो) अनंत जीव (सिद्धा) सिद्ध हुए हैं, तथा (संपइ जे य अवरे अणागया) वर्तमान काल में और भविष्य में भी दूसरे अनंत जीव सिद्धि को प्राप्त करेंगे ।
भावार्थ - मन, वचन और काया से प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए । अपने हित में प्रवृत्त और स्वर्गादि की इच्छा रहित होकर संयम पालन करना चाहिए । इस प्रकार अनन्त जीवों ने मोक्ष प्राप्त किया है तथा वर्तमान समय में प्राप्त करते हैं और भविष्य में भी प्रास करेंगे।
टीका - त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन यदि वा कृतकारितानुमतिभिर्वा प्राणिनो दशविधप्राणभाजो मा हन्यादिति प्रथममिदं महाव्रतम् अस्य चोपलक्षणार्थत्वाद् एवं शेषाण्यपि द्रष्टव्यानि, तथा आत्मने हित आत्महितः तथा नाऽस्य स्वर्गावाप्तयादिलक्षणं निदानमस्तीत्यनिदानः. तथेन्द्रियनोइन्द्रियैर्मनोवाक्कायैर्वा संवृतस्त्रिगुप्तिगुप्त इत्यर्थः, एवम्भूतश्चाऽवश्यं सिद्धिमवाप्नोतीत्येतद्दर्शयति- एवम् अनन्तरोक्तमार्गानुष्ठानेनानन्ताः सिद्धा अशेषकर्मक्षयभाजः संवृत्ताः विशिष्टस्थानभाजो वा, तथा सम्प्रति वर्तमाने काले सिद्धिगमनयोग्ये सिद्धयन्ति, अपरे वा अनागते काले एतन्मार्गानुष्ठायिन एव सेत्स्यन्ति, नापरः सिद्धिमार्गोऽस्तीति भावार्थः ॥२१॥
टीकार्थ - तीन प्रकार से अर्थात् मन, वचन और काया से अथवा करना कराना, करणों से दश प्रकार के प्राणों को धारण करनेवाले प्राणियों को नहीं मारना चाहिए । यह पहला महाव्रत है। यह उपलक्षण है, इसलिए शेष महाव्रतों को भी समझना चाहिए । तथा अपने हित में प्रवृत्त होकर स्वर्गादि प्राप्ति की अभिलाषा से वर्जित रहते हुए, इन्द्रिय नो इन्द्रिय तथा मन, वचन और काया इन तीन गुप्तियों से गुप्त रहना चाहिए। जो पुरुष इस प्रकार रहता है, वह अवश्य सिद्धि को प्राप्त करता है, यह दिखाने के लिए कहते हैं- पूर्वोक्त मार्ग का अनुष्ठान करके अनन्त पुरुषों ने अपने समस्त कर्मों को क्षय करके सिद्धि को प्राप्त किया है । अथवा विशिष्ट स्थान को प्राप्त किया है । तथा वर्तमान काल में भी सिद्धि प्राप्त करने योग्य क्षेत्र में पूर्वोक्त उपाय से ही सिद्धि को प्राप्त करते हैं । एवं भविष्य काल में इस पूर्वोक्त मार्ग का अनुष्ठान करके ही अनन्त जीव सिद्धि को प्राप्त करेंगे। इससे भिन्न कोई दूसरा सिद्धि का मार्ग नहीं है ॥२१॥
- एतच्च सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिप्रभृतिभ्यः स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादयतीत्याह -
- यह श्री सुधर्मास्वामी, श्री जम्बूस्वामी आदि अपने शिष्य वर्ग के प्रति कहते हैं, यह बताने के लिए सूत्रकार कहते हैं - एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी अणुत्तरदंसी अणुत्तरणाणदसणधरे अरहा नायपुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए
॥२२।। त्ति बेमि। इति वेयालियनामा द्वितीयाज्झयणं समत्तं (गाथाग्रम्-१७४)
छाया - एवं स उदाहतवावनुत्तरज्ञाव्यनुत्तरदर्शी अनुत्तरज्ञानदर्शनधरो ऽर्हन् ज्ञातपुत्रो भगवान् वैशालिक भाख्यातवानिति ब्रवीमि ॥
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