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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने प्रथमोद्देशः गाथा २
उपसर्गाधिकारः है । विद्वानों ने कहा है कि, जिसका कपोलस्थल, मद जल से भीगा हुआ है, वह हाथी अकाल मेघ के समान तभी तक गर्जता है, जब तक वह गुफा भूमि में सिंह के लांगूल फटकारने का शब्द नहीं सुनता । दृष्टान्त के बिना लोगों को प्रायः अर्थज्ञान नहीं होता, इसलिए दृष्टान्त कहते हैं जैसे माद्री का बेटा शिशुपाल, श्री कृष्ण को देखने के पूर्व अपनी प्रशंसा करता हुआ खूब गर्जता था परंतु जब उसने शस्त्रास्त्र का प्रहार करते हुए, युद्ध में दृढ़ स्वभाववाले अर्थात् जो संग्राम में कभी भंग को प्राप्त नहीं होते थे । ऐसे महारथी, प्रकरणानुसार नारायण को देखकर क्षोभ को प्राप्त हुआ था । यद्यपि वह पहले खूब अपनी प्रशंसा करता था, तथापि उस समय क्षोभ को प्राप्त हुआ । इसी तरह आगे बताए जाने वाले दृष्टान्त में भी इस दृष्टान्त का सम्बन्ध मिला लेना चाहिए ।
इसका भावार्थ कथाभाग से जानना चाहिए वह यह है - वसुदेव की बहिन के गर्भ से दमघोष राजा का पुत्र शिशुपाल उत्पन्न हुआ। वह चार भुजावाला तथा अद्भुत पराक्रमी और कलहकारी था। उसकी माता ने अपने पुत्र को चार भुजावाला, अद्भुत बलशाली देखकर हर्ष तथा भय से कम्पित होकर उसका फल पूछने के लिए ज्योतिषी को बुलाया । ज्योतिषी ने सोच विचारकर प्रसन्न हृदया माद्री से कहा कि, यह तुम्हारा पुत्र बडा बलवान् और समर में अजेय होगा । परन्तु जिसको देखकर तुम्हारे पुत्र की बाहें स्वभावानुसार दो ही रह जाय उसी पुरुष से इसको भय होगा । इसमें कुछ सन्देह नहीं है। यह सुनकर माद्री ने भयभीत होकर अपने पुत्र को कृष्ण को दिखाया । ज्यों ही कृष्ण ने उस पुत्र को देखा त्यों ही उसकी भुजायें दो रह गयी जैसे मनुष्य मात्र की होती हैं । इसके पश्चात् कृष्ण की फूफी (बूआ ) ने अपने पुत्र को कृष्ण के चरण पर गिराकर प्रार्थना की कि, "यह यदि अपराध भी करे तो तूं उसे क्षमा करना", कृष्ण ने भी उसके सौ अपराध क्षमा करने की प्रतिज्ञा की । इसके पश्चात् शिशुपाल जब युवावस्था को प्राप्त हुआ तब वह यौवनमद से मत्त होकर श्रीकृष्ण को गाली देने लगा । श्रीकृष्ण यद्यपि उसको दण्ड देने में समर्थ थे तथापि अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उसके अपराधों को सहन करते रहे । जब शिशुपाल के सौ अपराध पूरे हो गये तब श्रीकृष्ण ने उसे बहुत मना किया परन्तु वह मना करने पर भी नहीं माना तब श्रीकृष्ण ने चक्र के द्वारा उसका शिर काट लिया ॥१॥
साम्प्रतं सर्वजनप्रतीतं वार्तमानिकं दृष्टान्तमाह
अब सर्वजनप्रसिद्ध वर्त्तमानकाल का दृष्टान्त देते हैं
पयाता सूरा रणसीसे, संगामंमि उवट्ठिते । माया पुत्तं न याणाइ, जेएण परिविच्छए
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॥२॥
छाया - प्रयाताः शूरा रणशीर्षे सङ्ग्राम उपस्थिते । माता पुत्रं न जानाति नेत्रा परिविक्षतः ॥
अन्वयार्थ - ( संगामंमि) युद्ध ( उवट्ठिते) छिड़ने पर ( रणसीसे) युद्ध के अग्रभाग में (पयाता) गया हुआ (सूरा) वीराभिमानी पुरुष, (माया) माता (पुत्तं) अपने पुत्र को (न याणाइ) गोद से गिरता हुआ नहीं जानती है, ऐसे व्यग्रताजनक युद्ध में (जेएण) विजेता पुरुष 'के द्वारा (परिविच्छए) छेदन भेदन किया हुआ दीन हो जाता है ।
भावार्थ - युद्ध छिड़ने पर वीराभिमानी कायर पुरुष भी युद्ध के आगे जाता है, परंतु धीरता को नष्ट करनेवाला युद्ध जब आरंभ होता है और घबराहट के कारण जिस युद्ध में माता अपने गोद से गिरते हुए पुत्र को भी नहीं जानती तब वह पुरुष विजयी पुरुष के द्वारा छेदन भेदन किया हुआ दीन हो जाता है ।
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टीका - 'पयाता' इत्यादि, यथा वाग्भिर्विस्फूर्जन्त: प्रकर्षेण विकटपादपातं 'रणशिरसि' सङ्ग्राममूर्धन्यग्रानीके याता - गताः, के ते ? - 'शूरा: ' शूरंमन्या: - सुभटाः, ततः सङ्ग्रामे समुपस्थिते पतत्परानीकसुभटमुक्तहेतिसङ्घाते सति तत्र च सर्वस्याकुलीभूतत्वात् ' माता पुत्रं न जानाति' कटीतो प्रश्यन्तं स्तनन्धयमपि न सम्यक् प्रतिजागर्त्तीत्येवं मातापुत्रीये सङ्ग्रामे परानीकसुभटेन जेत्रा चक्रकुन्तनाराचशक्त्यादिभिः परिः क्षतो - हतश्छिन्नो वा यथा कश्चिदल्पसत्त्वो भङ्गमुपयाति दीनो भवतीतियावदिति ॥२॥
समन्तात् विविधम् - अनेकप्रकारं
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