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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने प्रथमोद्देशकेः प्रस्तावना
तृतीयाध्यनस्य प्रस्तावना क्षेत्र को 'बह्वोधपद' कहते हैं । यहां 'बह्वोघमयं' यह पाठान्तर भी मिलता है इसके अनुसार जिस क्षेत्र में समूह रूप से बहुत से भय के स्थान होते हैं, उसको 'बह्वोघमय' कहते हैं । ऐसे क्षेत्र लाढ़ आदि के देश वगैरह हैं। जिस काल में एकान्त रूप से दुःख ही होता है, वह दुष्षम आदि काल कालोपसर्ग हैं। यहां आदि पद के ग्रहण से जो वस्तु जिस क्षेत्र में दुःख की उत्पत्ति करती है, उस ग्रीष्मादि वस्तु का भी क्षेत्रोपसर्ग में ग्रहण करना चाहिए। ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का उदय होना भावोपसर्ग है । पूर्वोक्त सभी उपसर्ग, औधिक और औपक्रमिक भेद से दो प्रकार के होते हैं । इनमें अशुभ कर्मप्रकृति से उत्पन्न भावोपसर्ग को औधिक उपसर्ग कहते हैं। तथा डंडा, चाबूक और शस्त्र आदि के द्वारा दुःख की उत्पत्ति करनेवाला उपसर्ग औपक्रमिक कहलाता है ॥४६॥
औधिक और औपक्रमिक उपसर्गों में से अब नियुक्तिकार औपक्रमिक उपसर्ग के विषय में उपदेश करते
किसी बात के आरम्भ का नाम उपक्रम है । जो कर्म उदय को प्राप्त नहीं है, उसका उदय होना उपक्रम शब्द का अर्थ है । जिस द्रव्य के उपयोग करने से अथवा जिस वस्तु के द्वारा असातावेदनीय आदि अशुभ कर्म का उदय होता है और जिसके उदय होने से अल्प पराक्रमी जीव के संयम का विनाश होता है । उस द्रव्य के द्वारा उपसर्ग को औपक्रमिक उपसर्ग कहते हैं । यह संयम का विनाश करनेवाला है ।
इस जगत में मोक्षप्राप्ति के लिए प्रवृत्त मुनियों का संयम ही मोक्ष का कारण है, अतः उस संयम के विघ्न के जो कारण हैं, वही इस अध्ययन में बताये जाते हैं, यह नियुक्तिकार दिखलाते हैं । औधिक और औपक्रमिक उपसर्गों में से यहां औपक्रमिक उपसर्ग का वर्णन है। वह औपक्रमिक उपसर्ग द्रव्य के विषय में चार प्रकार का होता है जैसे कि देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यञ्चकृत और आत्मसंवेदन । अब इन्हीं का भेद बताने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं ॥४७॥
दिव्य आदि उपसर्ग प्रत्येक चार प्रकार के होते हैं । इनमें दिव्य उपसर्ग, हास्य से, द्वेष से, परीक्षा करने के लिए तथा नाना प्रकार के कारणों से होता है । तथा मनुष्यकृत उपसर्ग भी हास्य से, द्वेष से, परीक्षा के लिए और कुशील सेवन से होते हैं । एवं तिर्यश्च कृत उपसर्ग भी चार प्रकार के होते हैं। जैसे कि भय के कारण, द्वेष के कारण, आहार करने के लिए तथा अपने बच्चे की रक्षा करने के लिए । आत्मसंवेदन रूप उपसर्ग भी चार प्रकार के हैं, जैसे कि - नेत्र आदि अङ्गों को रगड़ने से तथा अङ्गुलि आदि अङ्गों के सड़ जाने से एवं स्तम्भित होने से (खून की गति रुक जाने से) तथा गिर जाने से । अथवा वात, पित्त, कफ और इनके समूह से उत्पन्न चतुर्विध उपसर्ग आत्मसंवेदन कहलाते हैं। पूर्वोक्त दिव्य आदि चतुर्विध उपसर्ग ही अनुकूल और प्रतिकूल भेद से आठ प्रकार के हैं । वे दिव्य आदि उपसर्ग जो प्रत्येक चार-चार प्रकार के पहले दिखाये जा चुके हैं, उन चारों के चारों भेदों को परस्पर मिला देने से सोलह भेद होते हैं । इन उपसर्गों की जिस प्रकार प्राप्ति होती है और प्राप्त हुए इन उपसगों के सहन करने में जो पीड़ा होती है, सो इसके आगे इस अध्ययन के द्वारा कहा जायगा यही यहां अर्थाधिकार है ॥४८॥ अब उद्देशक के अधिकार के विषय में नियुक्तिकार कहते हैं -
प्रथम उद्देशक में प्रतिलोम अर्थात् प्रतिकूल उपसर्गों का कथन किया है । तथा द्वितीय उद्देशक में अपने सम्बन्धी लोगों के द्वारा किये हुए अनुकूल उपसर्गों का वर्णन है। एवं तीसरे उद्देशक में चित्त को दुःखित करनेवाले परितीर्थियों के वचन बताये गये हैं । यह अधिकार है ॥४९॥
चतुर्थ उद्देशक में अर्थाधिकार यह है -
अन्य तीर्थियों ने हेतु समान प्रतीत होनेवाले परन्तु असद्हेतुस्वरूप अपने वाक्यों से जिन लोगों को विपरीत अर्थ ग्रहण कराकर धोखा दिया है, उन शीलभ्रष्ट तथा मोहितचित्त पुरुषों को स्वसिद्ध हेतुओं के द्वारा यथार्थ स्वरूप का उपदेश किया गया है ॥५०॥
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