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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने तृतीयोद्देशः गाथा १७
अनित्यताप्रतिपादकाधिकारः
एतदेवाह नो नैव वित्तादिकं संसारे कथमपि त्राणं भवति नरकादौ पततो, नाऽपि रागादिनोपद्रुतस्य क्वचिच्छरणं विद्यत इति ॥ १६ ॥
टीकार्थ
धन, धान्य और हिरण्य आदि को 'वित्त' कहते हैं। हाथी, घोड़ा, गाय, भैंस आदि को पशु कहते हैं । माता, पिता, पुत्र और स्त्री आदि स्वजन वर्ग को 'ज्ञाति' कहते हैं । इन धन आदि पदार्थों को अज्ञानी जीव अपना शरण मानता है । वही दिखाते हैं अज्ञानी जीव यह मानता है कि "ये धन, पशु और ज्ञाति वर्ग मेरे परिभोग के लिए उपयोगी होंगे और मैं इनका उपार्जन और पालन के द्वारा समस्त उपद्रवों का निराकरण करूँगा" वस्तुतः जिस शरीर के लिए धन की इच्छा की जाती है, वह शरीर ही विनाशी है, यह वह मूर्ख नहीं जानता है । विद्वानों ने कहा है कि
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ऋद्धि स्वभाव से ही चञ्चल है और यह शरीर रोग और वृद्धत्व से नश्वर है । इन दोनों गमनशील पदार्थों का सम्बन्ध कब तक रह सकता है ?
तथा माता पिता हजारों हुए और पुत्र तथा कलत्र भी सैंकड़ों हुए। ये तो प्रत्येक जन्म में होते हैं । वस्तुतः कौन माता है और कौन पिता है ? |
यही सूत्रकार कहते हैं- नरक में गिरते हुए प्राणी की ये पिता आदि किसी प्रकार भी रक्षा नहीं कर सकते । जो पुरुष राग आदि से युक्त है, उसके लिए कहीं भी शरण नहीं है ॥ १६ ॥
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एतदेवाह
इसी बात को सूत्रकार कहते हैं
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अब्भागमितंमि 1 वा दुहे, 2 अहवा उक्कमिते भवंतिए ।
एगस्स गती य आगती, विदुमंता सरणं ण मन्नई
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छाया - अभ्यागते वा दुःखे, ऽथवोत्क्रान्ते भवान्तिके । एकस्य गतिश्चागतिः विद्वान् शरणं न मन्यते ॥ व्याकरण - ( अब्मागमितंमि) दुःख का विशेषण (वा) अव्यय (अहवा) अव्यय (दुहे, उक्कमिते, भवंतिए) भावलक्षणसप्तम्यन्त पद ( एगस्स) सम्बन्ध षष्ठ्यन्त ( गती आगती) कर्ता ( विदुमंता) कर्ता (सरणं) कर्म (मन्नई) क्रिया ।
अन्वयार्थ - ( अब्मागमितंमि दुहे ) दुःख आने पर ( अहवा) अथवा (उक्कमिते) उपक्रम के कारणों से आयु नाश होने पर ( भवंतिए) अथवा मृत्यु उपस्थित होने पर ( एगस्स) अकेले का ही (गती य) जाना (आगती) आना होता है (विदुमंता) अतः विद्वान् पुरुष (सरणं) धन आदि को अपना शरण (ण मन्नई) नहीं मानते है ।
भावार्थ - जब प्राणी के ऊपर किसी प्रकार का दुःख आता है, तब यह उसे अकेला ही भोगता है तथा उपक्रम के कारणों से आयु नष्ट होने पर अथवा मृत्यु उपस्थित होने पर वह अकेला ही परलोक में जाता है, इसलिए विद्वान् पुरुष किसी को अपना शरण नहीं मानते हैं ।
टीका पूर्वोपात्तासातावेदनीयोदयेनाभ्यागते दुःखे सत्येकाक्येव दुःखमनुभवति, न ज्ञातिवर्गेण वित्तेन वा किञ्चित् क्रियते । तथा च -
"रायणस्सवि मज्झगओ रोगाभिहतो किलिस्सइ इहेगो । सयणो वि य से रोगं न विरंचइ नेव नासेइ ||१||” अथवा उपक्रमकारणैरूपक्रान्ते स्वायुषि स्थितिक्षयेण वा भवान्तरे भवान्तिके वा मरणे समुपस्थिते सति एकस्यैवासुमतो गतिरागतिश्च भवति, विद्वान् विवेकी यथावस्थितसंसारस्वभावस्य वेत्ता ईषदपि तावत् शरणं न मन्यते कुतः सर्वात्मना त्राणमिति तथा हि .
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“एकस्य जन्ममरणे गतयश्च शुभाशुभाः भवावर्ते । तस्मादाकालिकहितमेकेनैवात्मनः कार्य्यम् ||१||” 1. गमियंसि चू. । 2. अहवोवक्कमिते भवंतए चू. । 3. स्वजनस्यापि मध्यगतो रोगाभिहतः क्लिश्यति इहेकः । स्वजनोऽपि च तस्य रोगं न विरेचयति ( हसयति) नैव नाशयति ||१||
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