Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 212
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने तृतीयोद्देशः गाथा १६ अनित्यताप्रतिपादकाधिकारः हुआ, तप में पराक्रम प्रकट करे । एवं मन, वचन और काया से गुप्त रहकर साधु सदा अपने और दूसरे के विषय में यत्न करे । इस प्रकार वर्तता हुआ साधु मोक्ष का अभिलाषी बने । टीका - सर्वमेतद्धेयमुपादेयं च ज्ञात्वा सर्वज्ञोक्तं मार्गं सर्वसंवररूपम् अधितिष्ठेत् आश्रयेत्, धर्मेणार्थो धर्म एव वाऽर्थः परमार्थेनान्यस्यानर्थरूपत्वात् धर्मार्थः स विद्यते यस्यासौ धर्मार्थी - धर्मप्रयोजनवान्, उपधानं तपस्तत्र वीर्य्यं यस्य स तथा अनिगूहितबलवीर्य्य इत्यर्थः, तथा मनोवाक्कायगुप्तः, सुप्रणिहितयोग इत्यर्थः, तथा युक्तो ज्ञानादिभिः सदा सर्वकालं यतेताऽऽत्मनि परस्मिंश्च । किंविशिष्टः सन् ? अत आह- परम उत्कृष्ट आयतो दीर्घः सर्वकालभवनान्मोक्षः तेनार्थिकः तदभिलाषी पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टो भवेदिति ॥ १५ ॥ टीकार्थ साधु हेय और उपादेय को जानकर सर्व संवर रूप सर्वज्ञोक्त मार्ग को ही ग्रहण करे । तथा वह धर्म को ही अपना प्रयोजन समझे अथवा वह धर्म को ही एकमात्र पदार्थ समझे, क्योंकि वस्तुतः धर्म से भिन्न सभी अनर्थ हैं । उपधान नाम तप का है, उसमें साधु अपने पराक्रम को न्यून न करे । तथा मन, वचन और काया से वह गुप्त रहे अर्थात् वह सुप्रणिहितयोग होकर रहे । साधु ज्ञानादि से युक्त होकर सर्वदा अपने और पर के विषय में यत्नवान् रहे । कैसा होकर वह ऐसा करे ? यह कहते हैं जो सब से दीर्घ है उसे 'परमायत' कहते हैं । जो सब काल में स्थित रहता है, वह परमायत है। ऐसे मोक्ष की सदा अभिलाषा करता हुआ साधु पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त होकर रहे ||१५|| - पुनरप्युपदेशान्तरमाह - फिर भी सूत्रकार दूसरा उपदेश देने के लिए कहते हैं वित्तं पसवो य 1 नाइओ, 2 तं बाले सरणं ति मन्नइ । एते मम तेसु वी अहं, नो ताणं सरणं न विज्जई ।।१६।। छाया - वित्तं पशवश्च ज्ञातयस्तद् बालः शरणमिति मन्यते । एते मम तेष्वप्यहं, नो त्राणं शरणं न विद्यते ॥ व्याकरण - (वित्तं, पसवो नाइओ) अध्याहृत संति क्रिया का कर्ता (तं) वित्त आदि का परामर्शक सर्वनाम, कर्म (बाले) कर्ता (सरणं) कर्म का विशेषण (त्ति) अव्यय (मन्नइ) क्रिया (एते) पूर्वोक्त वित्त आदि का परामर्शक सर्वनाम (मम) सम्बन्ध षष्ठ्यन्त (तेसु) अधिकरण (अहं) कर्ता (ताणं सरणं) वित्तादि के विशेषण (विज्जई) क्रिया । अन्वयार्थ - (बाले) अज्ञानी जीव (वित्त) धन (य) और (पसवो) पशु (नाइयो ) तथा ज्ञाति (तं) इन्हें (सरणं ति) अपना शरण (मन्नइ ) मानता है । (एते) ये (मम) मेरे हैं ( तेसु वी अहं) और मैं इनका हूँ (नो ताणं) वस्तुतः ये सब त्राण ( सरणं) और शरण (न विज्जई) नहीं हैं । भावार्थ - अज्ञानी जीव धन, पशु और ज्ञाति वर्ग को अपना रक्षक मानता वह समझता है कि ये सब मुझ को दुःख से बचायेंगे और मैं इनकी रक्षा करूंगा परंतु वस्तुतः वे उसकी रक्षा नहीं कर सकते । टीका - 'वित्तं' धनधान्यहिरण्यादि, 'पशवः' करितुरगगोमहिष्यादयो, ज्ञातयः स्वजनाः मातापितृपुत्रकलत्रादयः, तदेतद्वित्तादिकं बाल: अज्ञः शरणं मन्यते, तदेव दर्शयति- ममैते वित्तपशुज्ञातयः परिभोगे उपयोक्ष्यन्ते, तेषु चार्जनपालनसंरक्षणादिना शेषोपद्रवनिराकरणद्वारेणाहं भवामीत्येवं बालो मन्यते, न पुनर्जानीते यदर्थं धनमिच्छन्ति तच्छरीरमशाश्वतमिति । अपि च - """ रिद्धी सहावतरला रोगजराभंगुरं हयसरीरं । दोण्हंपि गमणसीलाण किच्चिरं होज्ज संबंधो ?” तथा " मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च । प्रतिजन्मनि वर्तन्ते कस्य माता पिताऽपि वा ?" 1. णातओ चू. । 2. बालजणो चू. । 3. ऋद्धिः स्वभावतरला रोगजराभङ्गुरं हतकं शरीरम् । द्वयोरपि गमनशीलयोः कियच्चिरं भवेत्संबन्धः ? । १७२ -

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