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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने तृतीयोद्देशकः गाथा १२
अनित्यताप्रतिपादकाधिकारः अन्धसदृश ! प्रत्यक्षस्यैवैकस्याभ्युपगमेन कार्याकार्यानभिज्ञ ! पश्येन-सर्वज्ञेन व्याहतम्-उक्तं सर्वज्ञागमं श्रद्धस्व प्रमाणीकुरु प्रत्यक्षस्यैवैकस्याभ्युपगमेन समस्तव्यवहारविलोपेन हन्त हतोऽसि, पितृनिबन्धनस्याऽपि व्यवहारस्यासिद्धेरिति, तथा अपश्यकस्य-असर्वज्ञस्याभ्युपगतं दर्शनं येनासावपश्यकदर्शनस्तस्याऽऽमन्त्रणं हेऽपश्यकदर्शन ! स्वतोऽर्वाग्दी भवांस्तथाविधदर्शनप्रमाणश्च सन् कार्याका-विवेचितया अन्धवदभविष्यद् यदि सर्वज्ञाभ्युपगमं नाकरिष्यत्, यदि वा अदक्षो वा अनिपुणो वा दक्षो वा निपुणो वा यादृशस्तादृशो वा अचक्षुर्दर्शनमस्यासावचक्षुर्दर्शनः केवलदर्शनः सर्वज्ञस्तस्माद्यदवाप्यते हितं तत् श्रद्धस्व, इदमुक्तं भवति अनिपुणेन निपुणेन वा सर्वज्ञदर्शनोक्तं हितं श्रद्धातव्यम् । यदिवा हेऽदृष्ट ! हे अर्वाग्दर्शन ! द्रष्ट्रा अतीतानागतव्यवहितसूक्ष्मपदार्थदर्शिना यद् व्याहृतम् अभिहितम् आगमे तत् श्रद्धस्व हे अदृष्टदर्शन ! अदक्षदर्शन ! इति वा असर्वज्ञोक्तशासनानुयायिन् ! तमात्मीयमाग्रहं परित्यज्य सर्वज्ञोक्ते मार्गे श्रद्धानं कुर्विति तात्पर्य्यार्थः । किमिति सर्वज्ञोक्ते मार्गे श्रद्धानमसुमान्न करोति येनैवमुपदिश्यते ? तन्निमित्तमाह- हंदीत्येवं गृहाण हु शब्दो वाक्यालङ्कारे सुष्ठु अतिशयेन निरुद्धमावृतं दर्शनं सम्यगवबोधरूपं यस्य स तथा, केनेत्याह- मोहयतीति मोहनीयं मिथ्यादर्शनादि ज्ञानावरणादिकं वा तेन स्वकृतेन कर्मणा निरुद्धदर्शनः प्राणी सर्वज्ञोक्तं मागं न श्रद्धत्ते अतः सन्मार्गश्रद्धानम्प्रति चोद्यत इति ॥११॥
टीकार्थ - जो देखता है उसे 'पश्य' कहते हैं और जो नहीं देखता है यानी अंधा है उसे 'अपश्य' कहते हैं । जो पुरुष कर्तव्य और अकर्तव्य के विचार से शून्य है, वह अन्ध पुरुष के सदृश है, उसी को संबोधन करते हुए कहते हैं कि - "हे अन्ध के समान पुरुष ! एक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने के कारण कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से रहित पुरुष ! तूं सर्वज्ञ पुरुष के कहे हुए आगम में श्रद्धा रख । एक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण स्वीकार करने पर समस्त व्यवहार लोप हो जाने से तूं नाश को प्राप्त होगा, क्योंकि एक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने पर कौन किसका पिता है ? और कौन किसका पुत्र है ? इत्यादि व्यवहार भी नहीं हो सकता । तथा हे असर्वज्ञ पुरुष के कहे हुए दर्शन को स्वीकार करनेवाले जीव ! प्रथम तो तूं स्वयं अर्वाग्दी यानी सामने के पदार्थ को देखनेवाला है और उस पर भी एक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण माननेवाले दर्शन को स्वीकार करता है, ऐसी दशा में यदि तूं सर्वज्ञोक्त आगम को स्वीकार नहीं करेगा तो कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से रहित होकर अन्ध पुरुष के सदृश हो जायगा । अथवा हे अन्यदर्शनवाले पुरुष ! चाहे तूं अदक्ष यानी अनिपुण है अथवा दक्ष यानी निपुण है. जैसा भी क्यों न है. तझ को अचक्षदर्शन यानी केवलज्ञानी सर्वज्ञ पुरुष के द्वारा जो हित की प्राप्ति होती है उसमें श्रद्धा करनी चाहिए, आशय यह है कि निपुण हो अथवा अनिपुण हो, सभी को सर्वज्ञ दर्शनोक्त हित में श्रद्धा रखनी चाहिए । अथवा हे अदृष्ट-अर्वाग्दशिन् ! भूत भविष्यत् व्यवहित और सूक्ष्म पदार्थों को जाननेवाले सर्वज्ञ पुरुष ने आगम में जो कहा है, उसमें श्रद्धा रखो । अथवा हे अदृष्टदर्शन ! अर्थात् हे असर्वज्ञोक्त दर्शन के अनुयायिन् ! तूं अपने आग्रह को छोड़कर सर्वज्ञोक्त मार्ग में श्रद्धा कर, यह तात्पर्य्यार्थ है। कहते हैं कि सर्वज्ञोक्त मार्ग में प्राणी क्यों नहीं श्रद्धा करता है जिससे यह उपदेश करते हो ? तो इसका कारण बताने के लिए सूत्रकार कहते हैं 'हु' शब्द वाक्यालङ्कार में आया है । जिस पुरुष का दर्शन यानी सम्यग् ज्ञान अत्यंत रुक गया है, उसे निरुद्धदर्शन कहते हैं । किससे उसका ज्ञान रुक गया है ? सो बताते हैं । जीवों को मोहित करनेवाले मिथ्यादर्शन आदि अथवा ज्ञानावरणीय आदि अपने किये कर्म के द्वारा जिसका ज्ञान रुक गया है, वह प्राणी सर्वज्ञोक्त मार्ग में श्रद्धा नहीं करता है । इसलिए शास्त्रकार, सर्वज्ञोक्त मार्ग में श्रद्धा करने की प्रेरणा करते हैं ॥११॥
- पुनरप्युपदेशान्तरमाह -
- फिर शास्त्रकार दूसरा उपदेश करते हैं - दुक्खी मोहे पुणो पुणो, निव्विंदेज्ज सिलोग-पूयणं । एवं सहितेऽहिपासए',आयतुलं पाणेहि संजए 1. अधिपासिया चू. 1 2. आयतूले चू. ।
॥१२॥