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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने तृतीयोद्देशकः गाथा ११
अनित्यताप्रतिपादकाधिकारः नुत्पन्नत्वेनाविद्यमानत्वात् कार्य प्रयोजनं प्रेक्षापूर्वकारिभिस्तदेव प्रयोजनसाधकत्वादादीयते, एवं च सतीहलोक एव विद्यते न परलोक इति दर्शयति- 'क: परलोकं दृष्ट्वेहायातः तथा चोचुः
पिब खाद च साधु शोभने ! यदतीतं वरगात्रि । तल ते ।
नहि भीरु ! गतं निवर्तते समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ||१|| तथा एतावानेव पुरुषो यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे ! वृकपदं पश्य यद वदन्यबहुश्रुताः ||२||इति||१oll
टीकार्थ - सर्वज्ञ पुरुषों ने कहा है कि- "टुटी हुई आयु जोड़ी नहीं जा सकती है, क्योंकि -
दिन और रात्रि दण्ड घडी के प्रमाण से आयु को क्षीण करती हुई' व्यतीत होती हैं, जो व्यतीत हो जाती हैं, वे फिर लौटकर नहीं आती हैं ।
यद्यपि जीवों की आयु की ऐसी ही व्यवस्था है तथापि अज्ञानी जीव, निर्विवेकी होने के कारण असत्कर्म के अनुष्ठान में धृष्टता के साथ प्रवृत्ति करते हैं । वे असत्कर्म के अनुष्ठान से लज्जित नहीं होते हैं। उन पाप कर्म करनेवालों को पाप कर्म करते हुए देखकर यदि कोई पाप न करने के लिए उपदेश करता है, तो वे मिथ्या पाण्डित्य के अभिमान से यह उत्तर देते हैं कि- "हम को तो वर्तमान काल से प्रयोजन है, क्योंकि वर्तमान काल में होनेवाले पदार्थ ही वस्तुतः सत् है, अतीत और अनागत पदार्थ नहीं । वे तो विनष्ट और अनुत्पन्न होने के कारण अविद्यमान हैं । बुद्धिमान् पुरुष वर्तमान काल के पदार्थों को ही स्वीकार करते हैं, क्योंकि वे ही प्रयोजन को सिद्ध करते हैं । अतः वे कहते हैं कि - "यह लोक ही वास्तव में सत् हैं, परलोक में कोई प्रमाण नहीं हैं । परलोक को कौन देखकर आया है ?" तथा उन्होंने यह श्लोक भी कहा है "पिब" इत्यादि अर्थात्
हे सुन्दरि । अच्छे-अच्छे पदार्थ खाओ और पीओ । जो वस्तु बीत गयी है, वह तुम्हारी नहीं है । हे भीरु ! गत वस्तु लोटकर नहीं आती है तथा यह शरीर भी महाभतों, है । तथा हे भद्रे ! जितना देखने में आता है, उतना ही पुरुष (लोक) है, परंतु अज्ञ लोग जिस तरह मनुष्य के पंजे को पृथिवी पर उखड़े हुए देखकर भेड़िये के पैर की मिथ्या ही कल्पना करते हैं, उसी तरह मिथ्या ही लोकान्तर की कल्पना करते है ||१०||
- एवमैहिकसखाभिलाषिणा परलोकं निह्मवानेन नास्तिकेन अभिहिते प्रत्युत्तरप्रदानायाह -
- इस प्रकार ऐहिक सुख की इच्छा करनेवाले और परलोक को मिथ्या कहनेवाले नास्तिक के कथन का उत्तर देने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - अदक्खुव ! दक्खुवाहियं, (तं) सद्दहसु अदक्खुदंसणा!। हंदि हु सुनिरुद्धदसणे मोहणिज्जेण कडेण कम्मुणा
॥११॥ छाया - अपश्यवत् ! पश्यव्याहृतं श्रद्धस्व अपश्यदर्शन ! | गृहाण सुनिरुद्धदर्शनः मोहनीयेन कृतेन कर्मणा ॥
व्याकरण - (अदक्खुव ! अदक्खुदंसणा!) ये सम्बोधन हैं (दक्खुवाहियं) कर्म (सद्दहसु) क्रिया (हंदि) क्रिया (हु) अव्यय (मोहणिज्जेण, कडेण) कर्म के विशेषण (कम्मुणा) हेतु तृतीयान्त (सुनिरुद्धदसणे) कर्ता ।
अन्वयार्थ - (अदक्खुव) हे अन्धतुल्य पुरुष ! (दक्खुवाहियं) सर्वज्ञ पुरुष से कहे हुए सिद्धान्त में (सद्दहसु) श्रद्धा करो (अदक्खुदंसणा) हे असर्वज्ञ दर्शनवालो ! (मोहणिज्जेण कडेण) स्वयं किये हुए मोहनीय (कम्मुणा) कर्म से (सुनिरुद्धदसणे) जिसकी ज्ञान दृष्टि बंद हो गयी है, वह सर्वज्ञोक्त आगम को नहीं मानता है (हंदि हु) यह जानो।
भावार्थ - हे अन्ध तुल्य पुरुष ! तू सर्वज्ञोक्त सिद्धान्त में श्रद्धाशील बन । हे असर्वज्ञोक्त आगम को स्वीकार करने वाले जीव ! जिसकी ज्ञान दृष्टि अपने किये हुए मोहनीय कर्म के प्रभाव से बंद हो गयी है। वह सर्वज्ञोक्त आगम को नहीं मानता है, यह समझो।।
टीका - पश्यतीति पश्यो न पश्योऽपश्योऽन्धस्तेन तुल्यः का-का-विवेचित्वादन्धवत्तस्याऽऽमन्त्रणं हेऽपश्यवद्1. कः परलोकं दर्शयति, कः पर० प्र.। 2. वदन्ति पा. । 3. णिएण चू. ।
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