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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने तृतीयोद्देशके: गाथा ९
अनित्यताप्रतिपादकाधिकारः छाया - इह जीवितमेव पश्यत, तरुण एव वर्षशतस्य त्रुट्यति । इत्वरवासं च बुध्यध्वं गृद्धनराः कामेषु मूर्च्छियाः || व्याकरण - ( इह ) अव्यय ( जीवियं) कर्म (एव) अव्यय ( पासहा) क्रिया मध्यम पुरुष (तरुणे) अधिकरण (वाससयस्स) सम्बन्ध षष्ठ्यन्त पद ( तुट्टती) क्रिया ( इत्तरवासे) कर्म (य) अव्यय ( बुज्झह) क्रिया (गिद्धनरा) कर्ता (कामेसु) अधिकरण (मुच्छिया) नर का विशेषण ।
अन्वयार्थ - ( इह ) इस लोक में (जीवियमेव ) जीवन को ही ( पासह) देखो (वाससयस्स) सौ वर्ष की आयुवाले पुरुष का भी जीवन, (तरुणे ) युवावस्था में ही ( तुट्टती) नष्ट हो जाता है। (इत्तरवासेव बुज्झह ) इस जीवन को थोड़े दिन के निवास के समान समझो ( गिद्धनरा) क्षुद्र मनुष्य (कामेषु) काम भोग में (मुच्छिया) मूर्च्छित होते हैं ।
भावार्थ - हे मनुष्यों ! इस मर्त्यलोक में पहले तो अपने जीवन को ही देखो। कोई मनुष्य शतायु होकर भी युवावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त होता है । अतः इस जीवन को थोड़े काल के निवास स्थान के समान समझो । क्षुद्र मनुष्य ही विषय भोग में आसक्त होते हैं ।
टीका - 'इह अस्मिन् संसारे आस्तां तावदन्यज्जीवितमेव सकलसुखास्पदमनित्यताऽऽघ्रातम् आवीचिमरणेन प्रतिक्षणं विशरारुस्वभावं तथा सर्वायुःक्षय एव वा तरुण एव वा युवैव वर्षशतायुरप्युपक्रमतोऽध्यवसाननिमित्तादिरूपादायुषः त्रुटयति प्रच्यवते, यदिवा साम्प्रतं सुबह्वप्यायुर्वर्षशतं तच्च तस्य तदन्ते तच्च सागरोपमापेक्षया कतिपयनिमेषप्रायत्वात् इत्वरवासकल्पं वर्तते स्तोकनिवासकल्पमित्येवं बुध्यध्वं यूयं, तथैवंभूतेऽप्यायुषि नराः पुरुषाः लघुप्रकृतयः कामेषु शब्दादिषु विषयेषु गृद्धा अध्युपपन्नाः मूर्च्छिताः तत्रैवाऽऽसक्तचेतसो नरकादियातना - स्थानमाप्नुवन्तीति शेषः ॥८॥ अपि च
टीकार्थ इस संसार में और वस्तुओं की तो बात ही क्या है ? समस्त सुखों का स्थान अपने जीवन को ही पहले देखो। यह जीवन, अनित्यता से युक्त है और 1 आवीचि मरण से प्रतिक्षण विनाशी है । समस्त आयु क्षीण होने पर अथवा अध्यवसान' निमित्त स्वरूप उपक्रम के कारण कोई शतायु पुरुष भी युवावस्था में ही मर जाता है । अथवा वर्तमान में इस मर्त्यलोक में अपने यहाँ सब से बड़ी आयु सौ वर्ष की मानी जाती है, वह भी सौ वर्ष के अन्त में समाप्त ही हो जाती है और वह आयु सागरोपम काल की अपेक्षा कई एक निमिष के समान ही है इसलिए वह थोड़े दिन के निवास के समान है, यह समझो। आयु की ऐसी अवस्था में क्षुद्र अर्थात् लघु प्रकृति के जीव ही शब्दादि विषयों में आसक्त होते हैं और आसक्त होकर नरक आदि यातना स्थान को प्राप्त करते हैं ॥८॥
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जे इह आरंभनिस्सिया, आतदंडा (ड) एगंतलूसगा । गंता ते पावलोगयं, अचिररायं आसुरियं दिसं
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छाया - य इह आरम्भनिश्रिता, आत्मदण्डा एकान्तलूषकाः । गन्तारस्ते पापलोककं, चिररात्रमासुरीं दिशम् ॥ 1. “आ समंताद्वीचय वीचयः "
आयुर्दलिकविच्युतिलक्षणा अवस्था यस्मिंस्तदावीचि । अथवा वीचिर्विच्छेदस्तदभावादवीचिः दीर्घत्वं तु प्राकृतत्वात्तदेवंभूतं मरणमावीचिमरणम्" । जैसे समुद्र की तरंगे प्रतिक्षण ऊपर आकर नष्ट होती रहती हैं, इसी तरह प्रतिक्षण आयु का नष्ट होना आवीचिमरण कहलाता है । अथवा विच्छेद होना वीचि कहलाता है और विच्छेद न होना अवीचि है अर्थात् जो लगातार होता रहता है, उसे आवीचि कहते है । अतः प्रतिक्षण होनेवाले आयु का नाशरूपी मरण को आवीचि मरण कहते हैं । यहाँ प्राकृतत्वात् दीर्घ हुआ है ।
2. ( अध्यवसान निमित्त )
‘“अतिहर्षविषादाभ्यामधिकमवसानं चिन्तनमध्यवसानं तस्मादायुर्भिद्यते उपक्रम्यते आयुरतिशयेन हृदयांशरोधात् " अथवा रागस्नेहभयभेदादध्यवसानं त्रिधा तस्मादायुर्भिद्यते । निमित्तं दण्डकशादिकं तत्र च सत्यायुर्भिद्यते । "
अत्यन्त हर्ष और विषाद के कारण अतिचिन्ता करना अध्यवसान कहलाता है। इसके होने पर आयु नष्ट हो जाती है क्योंकि अतिचिन्ता से हृदय की गति रुक जाती है । अथवा राग-द्वेष और भय के कारण भी अति चिन्ता उत्पन्न होती है और उससे आयु नष्ट हो जाती है। लाठी चाबुक आदि को निमित्त कहते हैं । इनसे भी आयु नष्ट हो जाती है । 3. चिरकालं चू. ।
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