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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने तृतीयोद्देशः गाथा ६
अनित्यताप्रतिपादकाधिकारः
टीका- 'व्याधेन' लुब्धकेन 'जहा व'त्ति यथा 'गव'न्ति मृगादिपशुर्विविधमनेकप्रकारेण कूटपाशादिना क्षतः परवशीकृतः श्रमं वा ग्राहितः प्रणोदितोऽप्यबलो भवति, जातश्रमत्वात् गन्तुमसमर्थः, यदि वा वाहयतीति वाहः शाकटिकस्तेन यथावदवहन् गौर्विविधं प्रतोदादिना क्षतः प्रचोदितोऽप्यबलो विषमपथादौ गन्तुमसमर्थो भवति, 'स चान्तशः' मरणान्तमपि यावदल्पसामर्थ्यो नातीव वोढुं शक्नोति, एवम्भूतश्च 'अबलो' भारं वोढुमसमर्थः तत्रैव पङ्कादौ विषीदतीति ॥५॥
टीकार्थ मृग आदि पशु व्याध के द्वारा कूटपाश आदि अनेक प्रकार से घायल किया हुआ अथवा थकाया हुआ दुर्बल हो जाता है अतः प्रेरणा करने पर भी वह थक जाने के कारण चल नहीं सकता । अथवा वहन करानेवाले को 'वाह' कहते हैं । 'वाह' नाम गाड़ीवान का है । जैसे गाड़ी को ठीक-ठीक वहन नहीं करते हुए बैल को गाड़ीवान्, चाबुक मारकर चलने के लिए प्रेरित करता है परंतु दुर्बल होने के कारण वह बैल विषम मार्ग में चल नहीं सकता, वह मरणान्त कष्ट पाकर भी दुर्बल होने के कारण भार को वहन नहीं कर सकता, किन्तु वहीं किचड़ आदि विषम स्थानों में कष्ट भोगता है ॥५॥
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दृष्टान्त बताकर अब सूत्रकार दाष्टन्ति बताते हैं
एवं कामेसणं विऊ [दू] अज्ज सुए पयहेज्ज [हामि] संथवं ।
कामी कामे ण कामए, लद्धे वा वि अलद्धे कण्हुई
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छाया - एवं कामेषणायां विद्वान, अद्यधः प्रजह्यात्संस्तवम् । कामी कामाझ कामयेल्लब्धान्वाऽप्यलब्धान् कुतश्चित् ॥
व्याकरण ( एवं ) अव्यय ( कामेसणं) कर्म (विऊ) कामी का विशेषण (अज्जसुए) अव्यय ( पयहेज्ज) क्रिया (संथवं ) कर्म (कामी) कर्ता (ण) अव्यय ( कामए) क्रिया (लद्धे) काम का विशेषण (वावि) अव्यय (अलखे) काम का विशेषण (कण्हुई) अव्यय ।
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॥६॥
अन्वयार्थ - (एवं) इसी तरह ( कामेसणं विऊ) काम के अन्वेषण में निपुण पुरुष (अज्जसुए) आज या कल (संथवं ) काम भोग की एषणा को (पयहेज्ज) छोड़ देवे ऐसी चिन्तामात्र करता है परंतु (कामी) कामी पुरुष (कामे) काम की (न कामए) कामना न करे और (लद्धेवावि) और मिले हुए काम भोग को भी (अलद्धे कण्हुई) नहीं मिले के समान जाने ।
भावार्थ - काम भोग के अन्वेषण में निपुण पुरुष, आज या कल काम भोग को छोड़ दे, ऐसी वह चिन्ता मात्र करता है परंतु छोड़ नहीं सकता है। अतः काम भोग की कामना ही नहीं करनी चाहिए और प्राप्त काम भोगों को अप्राप्त की तरह जानकर उनसे निःस्पृह हो जाना चाहिए ।
टीका- 'एवम्' अनन्तरोक्तया नीत्या कामानां शब्दादीनां विषयाणां या गवेषणा' प्रार्थना तस्यां कर्तव्यायां 'विद्वान्' निपुणः कामप्रार्थनासक्तः शब्दादिपङ्के मग्नः स चैवंभूतोऽद्य श्वो वा संस्तवं परिचयं कामसम्बन्धं प्रजह्यात् किलेति, एवमध्यवसाय्येव सर्वदाऽवतिष्ठते न च तान् कामान् अबलो बलीवर्दवत् विषमं मार्गं त्यक्तुमलं किञ्चन चैहिकामुष्मिकापायदर्शितया कामी भूत्वोपनतानपि कामान् शब्दादिविषयान् वैरस्वामिजम्बूनामादिवद्वा कामयेदभिलषेदिति तथा क्षुल्लककुमारवत् कुतश्चिन्निमित्तात् "सुट्टुगाइय" मित्यादिना प्रतिबुद्धो लब्धानपि प्राप्तानपि कामान् अलब्धसमान् मन्यमानो महासत्त्वतया तन्निःस्पृहो भवेदिति ॥६॥
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टीकार्थ - पूर्वोक्त प्रकार से शब्दादि विषयों के अन्वेषण करने में निपुण अर्थात् काम की प्रार्थना में आसक्त पुरुष शब्दादि रूप विषय पंक में फँसकर आज या कल काम के परिचय को छोड़ देवे ऐसा विचार मात्र सदा किया करता है, परंतु दुर्बल बैल जैसे विषम मार्ग को नहीं छोड़ सकता है, उसी तरह वह उन कामों को नहीं छोड़ सकता है । अत: कामी होकर भी इस लोक और परलोक के कष्ट को देखकर मिले हुए शब्दादि विषयों 1. जेण तस्स तहिं अप्पथामता, अचयंतो खलु सेऽवसीदती । 2. याऽन्वेषणा । 3. बालो, न बलः । 4. नैवै० ।