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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने तृतीयोदेशकेः गाथा ७-८
अनित्यताप्रतिपादकाधिकारः को वज्रस्वामी और जम्बूस्वामी आदि की तरह इच्छा नहीं करनी चाहिए [अर्थात् उन कामभोगों को छोड़ने की इच्छा करनी चाहिए ।] तथा क्षुल्लककुमार की तरह किसी भी निमित्त से 'सुगाइय'- श्लोक के द्वारा प्रतिबोध पाये हुए पुरुष को मिले हुए विषयों को नहीं मिले हुए के समान ही जानकर तथा महासत्त्ववान् बनकर उनसे निःस्पृह हो जाना चाहिए ॥६॥
- किमिति कामपरित्यागो विधेय इत्याशङ्कयाह -
- काम का परित्याग क्यों करना चाहिए ? यह आशंका कर के सूत्रकार कहते हैं - मा पच्छ असाधुता भवे, अच्चेही अणुसास अप्पगं । अहियं च असाहु सोयती, से थणति परिदेवती बहु
॥७॥ छाया - मा पश्चादसाधुता भवेदत्येहनुशाध्यात्मानम् । अधिकं चासाधुः शोचते स स्तनति परिदेवते बहु ।।
व्याकरण - (मा, पच्छ) अव्यय (असाधुता) कर्ता (अच्चेही, अणुसास) क्रिया (अप्पगं) कर्म (अहियं) क्रिया विशेषण (च) अव्यय (असाहु) कर्ता (सोयती) क्रिया (से) असाधु का विशेषण (थणति, परिदेवती) क्रिया (बहुं) क्रिया विशेषण ।
अन्वयार्थ - (पच्छ) पीछे (मा असाधुता भवे) दुर्गति गमन न हो इसलिए (अच्चेही) विषय सेवन से (अप्पगं) अपने आत्मा को पृथक् करो (अणुसास) और उसे शिक्षा दो (असाहु) असाधु पुरुष (अहियं च) अधिक (सोयती) शोक करता है (से, थणति) वह बहुत चिल्लाता है (बहुं परिदेवती) और वह बहुत रोता है ।
भावार्थ - मरण काल के पश्चात दुर्गति न हो इसलिए विषय सेवन से अपने आत्मा को हटा देना चाहिए और उसे शिक्षा देनी चाहिए कि असाधु पुरुष, बहुत शोक करता है, वह चिल्लाता है आर राता ह
टीका - मा पश्चात् मरणकाले भवान्तरे वा कामानुषङ्गाद् असाधुता कुगतिगमनादिकरूपा भवेत् प्राप्नुयादिति, अतो विषयासङ्गादात्मानम अत्येहि त्याजय तथा आत्मानं च अनुशाधि आत्मनोऽनुशास्तिं करु यथा- हे जीव ! यो हि असाधुः असाधुकर्मकारी हिंसाऽनृतस्तेयादौ प्रवृतः सन् दुर्गतौ पतितः अधिकम् अत्यर्थमेवं शोचति, स च परमाधार्मिकैः कदर्थ्यमानः तिर्यक्षु वा क्षुधादिवेदनाग्रस्तोऽत्यर्थं स्तनति सशब्दं निःश्वसिति तथा परिदैवते विलपति आक्रन्दति सुबहितिहा मातर्मियत इति त्राता नैवाऽस्ति साम्प्रतं कश्चित् । किं शरणं मे स्यादिह दुष्कृतचरितस्य पापस्य?।
इत्येवमादीनि दुःखान्यसाधुकारिणः प्राप्नुवन्तीत्यतो विषयानुषङ्गो न विधेय इत्येवमात्मनोऽनुशासनं कुर्विति सम्बन्धनीयम् ॥७॥ किञ्च
टीकार्थ - काम में आसक्त होने के कारण मरण काल में अथवा दूसरे भव में दुर्गति न हो इसलिए विषय सेवन से अपने को अलग हटाना चाहिए तथा अपने आत्मा को इस प्रकार शिक्षा देनी चाहिए कि- "हे जीव! हिंसा. झठ तथा चोरी आदि असत कर्म करनेवाला असाधु पुरुष, दुर्गति में जाकर परमाधार्मिकों के द्वारा पीड़ित किया जाता हुआ बहुत शोक करता है तथा तिर्यञ्च होकर क्षुधा से व्याकूल वह जीव बहुत चिल्लाता है तथा वह बहुत रोता हुआ कहता है कि- 'हे मात ! मैं मर रहा हूँ, मेरा कोई इस समय रक्षक नहीं है। मैंने बड़े पाप किये हैं । मुझ पापी का शरण इस समय कौन हो सकता है ? । इस प्रकार असत्कर्म करनेवाले पुरुष, बहुत दुःख भोगते हैं । इसलिए विषय संसर्ग नहीं करना चाहिए, इस प्रकार आत्मा को शिक्षा दो ॥७॥
इह जीवियमेव पासहा, तरुणे वाससयस्य तुट्टती । इत्तरवासे य बुज्झह, गिद्धनरा कामेसु 'मुच्छिया
॥८॥
1. तवे चू. | 2. पस्सधा चू. 1 3. तरुणगो वाससयस्स तिउट्टति चू. । 4. चिप्पिता चू. ।
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