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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने तृतीयोद्देशकः गाथा ५
अनित्यताप्रतिपादकाधिकारः कृपणेन समं प्रगल्भिताःनाऽपि जानन्ति समाधिमाख्यातम् ॥ व्याकरण - (जे) सर्वनाम, नर का विशेषण (इह) अव्यय (सायाणुगा) नर का विशेषण (अज्झोववन्ना, कामेहिं मुच्छिया) नर के विशेषण (किवणेण) तुल्यार्थ के योग में तृतीयान्त (सम) क्रिया विशेषण (नरा) कर्ता (पगब्मिया) नर का विशेषण (न, वि) अव्यय (जाणंति) क्रिया (आहितं) समाधि का विशेषण (समाहि) कर्म ।
अन्वयार्थ - (इह) इस लोक में (जे नरा) जो मनुष्य (सायाणुगा) सुख के पीछे चलते हैं (अज्झोववन्ना) तथा समृद्धि, रस और साता गौरव में आसक्त हैं (कामेहिं) और काम भोग में मूर्छित हैं (किवणेण) वे इन्द्रिय लंपटों के (सम) समान (पगब्भिया) धृष्टता के साथ काम सेवन करते हैं (आहितं समाहि) ऐसे लोग कहने पर भी समाधि धर्मध्यान को (न वि जाणंति) नहीं समझते हैं।
भावार्थ - इस लोक में जो पुरुष सुख के पीछे चलते हैं तथा समृद्धि, रस और सातागौरव में आसक्त हैं एवं काम भोग में मूर्च्छित हैं, वे इन्द्रियलम्पटों के समान ही काम सेवन में धृष्टता करते हैं। ऐसे लोग कहने पर भी धर्म ध्यान को नहीं समझते हैं ।
टीका - ये नरा लघुप्रकृतयः 'इह' अस्मिन् मनुष्यलोके सातं सुखमनुगच्छतीति सातानुगाः सुखशीला ऐहिकामुष्मिकापाय(या) भीरवः समृद्धिरससातागौरवेषु 'अध्युपपन्ना' गृद्धाः तथा 'कामेषु' इच्छामदनरूपेषु 'मूर्च्छिता' कामोत्कटतृष्णाः कृपणो दीनो वराकक इन्द्रियैः पराजितस्तेन समाः तद्वत्कामासेवने 'प्रगल्भिताः' धृष्टतां गताः, यदि वा किमनेन स्तोकेन दोषणासम्यक्प्रत्युपेक्षणादिरूपेणास्मत्संयमस्य विराधनं भविष्यत्येवं प्रमादवन्तः कर्तव्येष्ववसीदन्तः समस्तमपि संयमं पटवन्मणिकुट्टिमवद्वा मलिनीकुर्वन्ति, एवम्भूताश्च ते 'समाधि' धर्मध्यानादिकम् 'आख्यातं' कथितमपि न जानन्तीति ॥४॥
टीकार्थ - इस मनुष्य लोक में जो मनुष्य लघु प्रकृतिवाले हैं और इसलोक और परलोक के दुःखों से डरते हुए सुख के पीछे चलते हैं तथा समृद्धि-रस और साता गौरव में आसक्त हैं एवं काम भोग में उत्कट तृष्णावाले हैं वे, इन्द्रियों से पराजित दीन पुरुष के समान काम सेवन में धृष्टता करते हैं । अथवा जो पुरुष यह समझते हैं कि- "अच्छी तरह प्रतिलेखन आदि समिति का पालन नहीं करने आदि अल्प दोषों से क्या मेरा संयम नष्ट हो सकता हैं ?" वे इस प्रकार प्रमाद करते हुए वस्त्र और मणिमय भूमि की तरह निर्मल अपने समस्त संयम को मलिन कर डालते हैं। ऐसे लोग कहने पर भी धर्मध्यान आदि को नहीं समझते हैं ॥४॥
- पुनरप्युपदेशान्तरमधिकृत्याह -
- फिर शास्त्रकार दूसरा उपदेश देते हैं जैसे - वाहेण जहा व विच्छए, अबले होइ गवं पचोइए। 1से अंतसो अप्पथामए, नाइवहइ अबले विसीयति
छाया - वाहेन यथावविक्षतोऽबलो भवति गौः प्रचोदितः । सोऽन्तशोऽल्पस्थामा नातिवहत्यषलो विषीदति ॥
_ व्याकरण - (वाहेण) कर्तृ तृतीयान्त (जहा) अव्यय (व विच्छए, पचोइए, अबले) गवं के विशेषण (अप्पथामए) गवं का विशेषण (अंतसो) अव्यय (से) गवं का विशेषण (अइवहइ) क्रिया (गवं) कर्ता ।
अन्वयार्थ - (जहा) जैसे (वाहेन) गाड़ीवान के द्वारा (व विच्छए) चाबुक मारकर (पचोइए) प्रेरित किया हुआ (अबले) दुर्बल (गवं) बैल चल नहीं सकता हैं । किंतु (से) वह (अप्पथामए) अल्प सामर्थ्यवाला (अबले) दुर्बल बैल, (अंतसो) आखिरकार (नाइवहइ) भार वाहन नहीं कर सकता है अपितु (विसीयइ) कीचड़ आदि में फंसकर क्लेश भोगता हैं ।
भावार्थ - जैसे गाड़ीवान् के द्वारा चाबुक मारकर प्रेरित किया हुआ भी दुर्बल बैल कठिन मार्ग को पार नहीं करता है किन्तु अल्प पराक्रमी तथा दुर्बल होने के कारण वह विषम मार्ग में क्लेश भोगता हैं, परंतु भार वहन करने में समर्थ नहीं होता है।
1. प्यचालो ।
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