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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकेः गाथा २८
मानपरित्यागाधिकारः दूर करने की इच्छा करनी चाहिए । जो पुरुष, मन को दूषित करनेवाले शब्दादि विषयों में आसक्त नहीं हैं, वे अपनी आत्मा में स्थित धर्मध्यान तथा राग-द्वेष के त्याग रूप धर्म को जानते हैं।
___टीका - दुर्गतिं संसारं वा प्रणामयन्ति प्रह्वीकुर्वन्ति प्राणिनां प्रणामकाः-शब्दादयो विषयास्तान् पुरा पूर्व भुक्तान् मा प्रेक्षस्व मा स्मर, तेषां स्मरणमपि यस्मान्महते अनर्थाय, अनागतांश्च नोदीक्षेत-नाकाक्षेदिति, तथा अभिकाक्षेत् अभिलषेदनारतं चिन्तयेदनुरूपमनुष्ठानं कुर्य्यात्, किमर्थमिति दर्शयति-उपधीयते ढौक्यते दुर्गतिं प्रत्यात्मा येनासावुपधिः-माया अष्टप्रकारं वा कर्म तदहननाय अपनयनायाभिकाङक्षेदिति सम्बन्धः, दृष्टधर्मम्प्रत्यपनताः कमार्गानुष्ठायिनस्तीर्थिकाः यदि वा 'दूमण'त्ति, दुष्टमनःकारिण उपतापकारिणो वा शब्दादयो विषयास्तेषु ये महासत्त्वाः न नताः न प्रह्वीभूताः तदाचारानुष्ठायिनो न भवन्ति ते सन्मार्गानुष्ठायिनो जानन्ति विदन्ति समाधिं रागद्वेषपरित्यागरूपं धर्मध्यानं च आहितम् आत्मनि व्यवस्थितम्, आ-समन्ताद्धितं वा त एव जानन्ति नाऽन्य इति भावः ॥२७॥ तथा -
टीकार्थ - जो, प्राणियों को दुर्गति में अथवा संसार में डाल देते हैं, उन्हें "प्रणामक" कहते हैं, वे शब्दादि विषय है, क्योंकि वे ही प्राणियों को दुर्गति अथवा संसार में डालते हैं । जो शब्दादि विषय पहले भोगे हुए हैं, उनका स्मरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनका स्मरण भी महान् अनर्थ का कारण है । तथा भविष्य में उनकी प्राप्ति की इच्छा भी नहीं करनी चाहिए, किन्तु निरन्तर योग्य अनुष्ठान का चिन्तन करना चाहिए। किसलिए? यह दिखलाते हैं - जिसके द्वारा आत्मा दुर्गति में पहुँचाया जाता है, उसे 'उपधि' कहते हैं। उपधि ना अथवा आठ प्रकार के कर्मों का है । साधु उनको हनन यानी दूर करने की इच्छा करे । दुष्ट धर्म में आसक्त, कुमार्ग का अनुष्ठान करनेवाले जो अन्यतीर्थी हैं, उनमें, अथवा मन को दूषित करनेवाले जो शब्दादि विषय हैं, उनमें, जो महापुरुष आसक्त नहीं है, जो उनका आचरण नहीं करते हैं, किन्तु सन्मार्ग का अनुष्ठान करते हैं, वे ही अपने आत्मा में स्थित राग-द्वेष परित्याग रूप समाधि को अथवा धर्मध्यान को जानते हैं । अथवा वे ही चारों तरफ से अपने हित को जानते हैं, दूसरे नहीं जानते ॥२७॥
णो 'काहिए होज्ज संजए, पासणिए ण य संपसारए । नच्चा धम्म अणुत्तरं, कयकिरिए ण यावि मामए
॥२८॥ छाया - नो कथिको भवेत्संयतः नो प्राश्निको न च संप्रसारकः । ज्ञात्वा धर्ममनुत्तरं कृतक्रियो न चाऽपि मामकः ॥
व्याकरण - (संजए) कर्ता (काहिए) संजए का विशेषण (होज्ज) क्रिया (पासणिए, संपसारए) संजए का विशेषण (अणुत्तरं) धर्म का विशेषण (धम्म) कर्म (नच्चा) पूर्व कालिक क्रिया (कयकिरिए मामए) संजए के विशेषण ।
अन्वयार्थ - (संजए) संयमी पुरुष (णो काहिए) विरुद्ध कथा न करे (णो पासणिए) तथा प्रश्न का फल बतानेवाला न हो (ण य संपसारए) एवं वृष्टि और धनोपार्जन के उपायों को बतानेवाला भी न बनें । किन्तु (अणुत्तर) सर्वोत्तम (धम्म) धर्म को (नच्चा) जानकर (कयकिरिए) संयम रूप क्रिया का अनुष्ठान करे (णयावि मामए) और किसी वस्तु पर ममता न करे ।
भावार्थ - संयमी पुरुष, विरुद्ध कथा वार्ता न करे तथा प्रश्नफल और वृष्टि तथा धनवृद्धि के उपायों को भी न बतावे | किन्तु लोकोत्तर धर्म को जानकर संयम का अनुष्ठान करे और किसी वस्तु पर ममता न करे ।
__टीका - संयतः प्रव्रजितः कथया चरति काथिकः गोचरादौ न भवेद् यदि वा विरुद्धां पैशून्यापादनी स्त्र्यादिकथां वा न कुर्य्यात्, तथा प्रश्नेन राजादिकिंवृत्तरूपेण दर्पणादिप्रश्ननिमित्तरूपेण वा चरतीति प्राश्निको न भवेत्, नाऽपि संप्रसारकः देववृष्टयर्थकाण्डादिसूचककथाविस्तारको भवेदिति किं कृत्वेति दर्शयति-ज्ञात्वा अवबुद्धय नास्योत्तरो विद्यत इत्यनुत्तरस्तं श्रुतचारित्राख्यं धर्म सम्यगवगम्य, तस्य हि धर्मस्यैतदेव फलं यदुत विकथानिमित्तपरिहारेण सम्यक् क्रियावान् स्यादिति, तदर्शयति-कृता स्वभ्यस्ता क्रिया संयमानुष्ठानरूपा येन स कृतक्रियः तथाभूतश्च न चाऽपि मामको ममेदमहमस्य स्वामीत्येवं परिग्रहाग्रही भवेदिति ॥२८॥ किञ्च1. काधीए चू. ।