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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकेः गाथा ३२
मानपरित्यागाधिकारः आदि को प्राणियों ने यथावत् अनुष्ठान नहीं किया है, अत एव प्राणियों को आत्महित दुर्लभ है ॥३१॥
दिसम्पन्न
- पुनरप्युपदेशान्तरमधिकृत्याह -
- फिर भी शास्त्रकार दूसरा उपदेश देने के लिए कहते हैं - एवं 'मत्ता महंतरं धम्ममिणं सहिया बहू जणा। गुरुणो छंदाणुवत्तगा विरया तिन [तिन्ना] महोघमाहितं । त्ति बेमि (गाथाग्रम् १५२) ।।३२॥
छाया - एवं मत्वा महदन्तरं धर्ममेनं सहिताः बहवो जनाः ।।
____ गुरोरछब्दानुवर्तकाः विरतास्तीर्णाः महोघमारख्यातम् ॥ इति ब्रवीमि ।
व्याकरण - (एवं) अव्यय (इणं, महंतरं) धर्म के विशेषण (धम्म) कर्म (मत्ता) पूर्वकालिक क्रिया (सहिया, गुरुणो छन्दाणुवत्तगा, विरया) ये सब बहुजन के विशेषण हैं (महोघं) कर्म (तिन) बहुजन का विशेषण (आहित) भाववाच्य क्तान्त पद । अन्वयार्थ - (एव) इस प्रकार (मत्ता) मानकर (महंतर) सर्वोत्तम (धम्ममिणं) इस आर्हत धर्म को स्वीकार करके (सहिया) ज्ञाना
त्तगा) गुरु के अभिप्राय के अनुसार वर्तनेवाले (विरया) पाप से रहित (बहु जणा) बहुत जनों ने (महोघं) संसार सागर को (तिन्त्र) पार किया है (आहित) यह मैं आपसे कहता हूँ।
भावार्थ - प्राणियों को हित की प्राप्ति बहुत कठिन है, यह जानकर तथा यह आर्हत धर्म सब धर्मों में श्रेष्ठ है, यह समझकर ज्ञानादिसम्पन्न, गुरु के उपदिष्ट मार्ग से चलनेवाले पाप से विरत बहुत पुरुषों ने इस संसार को पार किया है, यह मैं कहता हूँ।
टीका - एवम् उक्तरीत्या आत्महितं सुदुर्लभं मत्वा ज्ञात्वा धर्माणां च महदन्तरं धर्मविशेष कर्मणो वा विवरं ज्ञात्वा यदि वा 'महंतरं' ति, मनुष्यार्यक्षेत्रादिकमवसरं सदनुष्ठानस्य ज्ञात्वा एनं जैन धर्म श्रुतचारित्रात्मकं सह हितेन वर्तन्त इति सहिताः ज्ञानादियुक्ता बहवो जनाः लघुकर्माणः समाश्रिताः सन्तो गुरोराचार्यादेस्तीर्थङ्करस्य वा छन्दानुवर्तकास्तदुक्तमार्गानुष्ठायिनो विरताः पापेभ्यः कर्मभ्यः सन्तस्तीर्णाः महौघमपारं संसारसागरमेवमाख्यातं मया भवतामपरैश्च तीर्थकृद्भिरन्येषाम् इतिशब्दः परिसमाप्त्यर्थं ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥३२॥
वैतालीयस्य द्वितीयोद्देशकः समाप्तः । टीकार्थ - उक्त रीति से अपना हित प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है, यह जानकर तथा सब धर्मों से महान् अन्तर रखनेवाले धर्म विशेष को अथवा कर्म के अन्तर को जानकर अथवा उत्तम अनुष्ठान के योग्य मनुष्य और आर्यक्षेत्र आदि अवसर को जानकर तथा इस श्रुत चारित्र स्वरूप आर्हत् धर्म को स्वीकारकर ज्ञान आदि से सम्पन्न लघु कर्मी बहुत पुरुष, आचार्य आदि अथवा तीर्थंकर के बताये हुए मार्ग का अनुष्ठान करने वाले पाप कर्म से निवृत्त हो गये हैं और उन्होंने अपार संसार सागर को पार किया है, यह मैंने आप लोगों से कहा है और दूसरे (पूर्व के) तीर्थंकरों ने दूसरों से कहा है। इति शब्द समाप्त्यर्थक है 'ब्रवीमि' पूर्ववत् है ।
इति द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ॥३२॥
1. माता चू.। 2. मधोघ० चू. ।
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