________________
सूत्रकृताने भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशः गाथा २९
मानपरित्यागाधिकारः
टीकार्थ प्रव्रज्या लिया हुआ संयमी पुरुष, गोचरी आदि के समय कथा न कहे । अथवा चुगली आदि विरुद्ध कथा अथवा स्त्री सम्बन्धी कथा न करे। किसी राजा, महाराजा आदि द्वारा "मेरे देश में क्या होगा" इत्यादि प्रश्न पूछने पर ज्योतिषी के समान उसके प्रश्न का फल न बतावे, एवं देववृष्टि तथा धनलाभ के उपायों को भी साधु न बतावे, किन्तु श्रुत और चारित्र रूप धर्म को सर्वोत्तम जानकर संयम का अनुष्ठान करे, क्योंकि लोकोत्तर धर्म जानने का यह फल है कि विकथा और निमित्त बताना आदि कार्यों को छोड़कर सम्यक् क्रिया के अनुष्ठान में प्रवृत्ति करे । तथा यह वस्तु मेरी है और मैं इसका स्वामी हूँ" इस प्रकार की ममता साधु न करे ||२८||
छन्नं च पसंस णो करे, न य उक्कोस पगास माहणे ।
तेसिं सुविवेगमाहिए, 'पणया जेहिं सुजोसिअं धुयं
॥२९॥
छाया - • छनं च प्रशस्यं च न कुर्य्यााचोत्कर्षं प्रकाशं माहनः । तेषां सुविवेक आहितः प्रणताः यैः सुजुष्टं धुतम् ॥ व्याकरण - ( छन्नं पसंस ) कर्म (करे ) क्रिया (उक्कोस पगास) कर्म (माहणे) कर्ता (तेसिं) कषायों का परामर्शक सम्बन्ध षष्ठ्यन्त पद (सुविवेगं ) उक्त कर्म (आहिए ) कर्मवाच्य क्तान्तपद (जेहिं) कर्ता (धुयं) उक्त कर्म ( सुजोसिअं ) कर्मवाच्य क्तान्त पद ( पणया) मुनि का विशेषण । अन्वयार्थ - ( माहणे ) साधु पुरुष (छत्रं च ) माया (पसंस ) लोभ ( उक्कोस ) मान ( पगासं च ) और क्रोध (णो करे) नहीं करे (जेहिं) जिन्होंने (धुयं ) आठ प्रकार के कर्मों को नाश करनेवाले संयम को (सुजोसियं) अच्छी तरह से सेवन किया है। (तेसिं) उन्हींका (सुविवेगं आहिए ) उत्तम विवेक प्रसिद्ध हुआ है। (पणया) और वे ही धर्म में आसक्त हैं ।
-
भावार्थ - साधु पुरुष, क्रोध, मान, माया और लोभ न करे । जिन्होंने आठ प्रकार के कर्मों को नाश करनेवाले संयम का सेवन किया है, उन्हींका उत्तम विवेक जगत् में प्रसिद्ध हुआ है और वे ही धर्म में आसक्त पुरुष हैं । टीका 'छन्नं'त्ति, माया तस्याः स्वाभिप्रायप्रच्छादनरूपत्वात् तां न कुर्य्यात् । च शब्दः उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, तथा प्रशस्यते सर्वैरप्यविगानेनाद्रियत इति प्रशस्यो लोभस्तं च न कुर्यात्, तथा जात्यादिभिर्मदस्थानैर्लघुप्रकृतिं पुरुषमुत्कर्षयतीत्युत्कर्षको मानस्तमपि न कुर्य्यादिति सम्बन्धः, तथाऽन्तर्व्यवस्थितोऽपि मुखदृष्टिभ्रूभङ्गविकारैः प्रकाशी भवतीति प्रकाशः क्रोधस्तं च 'माहणे 'त्ति साधुर्न कुर्य्यात् तेषां कषायाणां यैर्महात्मभिः विवेकः परित्यागः आहितो जनितस्त एव धर्मम्प्रति प्रणता इति । यदि वा तेषामेव सत्पुरुषाणां सुष्ठु विवेकः परिज्ञानरूपः आहितः प्रथितः प्रसिद्धिं गतः त एव च धर्मं प्रति प्रणताः यैः महासत्त्वैः सुष्ठु जुष्टं सेवितं धूयतेऽष्टप्रकारं कर्म तद्भूतं संयमानुष्ठानं, यदि वा यैः सदनुष्ठायिभिः 'सुजोसिअं'त्ति सुष्ठु क्षिप्तं धूननार्हत्वाद् धूतं कर्मेति ॥ २९॥ अपि च
-
टीकार्थ 'छन्न' माया का नाम है क्योंकि अपने अभिप्राय को छिपाना 'माया' है। साधु माया न करे। यहाँ 'च' शब्द अगले पदार्थों का समुच्चय करने के लिए कहा है। तथा सब लोग बिना किसी आपत्ति के जिसका आदर करते हैं, उसे 'प्रशस्य' कहते हैं । प्रशस्य नाम लोभ का है, वह नहीं करना चाहिए । 'उत्कर्ष' नाम मान का है, क्योंकि वह छोटी प्रकृतिवाले पुरुष को जाति आदि मदस्थानों के द्वारा मत्त बना देता है, इसलिए साधुमान न करे । एवं 'प्रकाश' नाम क्रोध का है, क्योंकि वह मनुष्य के अन्दर रहकर भी मुख, दृष्टि, भ्रुकुटि भंग आदि विकारों से प्रकट होता है । साधु पुरुष क्रोध भी न करे । जिन महात्माओं ने इन कषायों का परित्याग किया है, वे ही धर्म में प्रवृत्त हैं अथवा उन्हीं सत्पुरुषों का उत्तम परिज्ञान स्वरूप विवेक जगत् में प्रसिद्ध हुआ है और वे ही धर्म में प्रवृत्त हैं। जिन महापुरुषों ने आठ प्रकार के कर्मों को दूर करनेवाले संयमानुष्ठान का भलीभांति सेवन किया है अथवा सत् कर्म का अनुष्ठान करनेवाले जिन महात्माओं ने अच्छी तरह अष्टविध कर्मों को दूर कर दिया है, वे ही धर्म में प्रवृत्त हैं । यहाँ धूनन यानी क्षेपण करने योग्य होने से कर्मों को 'धूत' कहा है ॥२९॥
१५६
-
1. पणता धम्मे सुज्झोसितं धूतं चू. ।